Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 03
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 188
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७९ शिष्यो आ संसारमा, एवा धरशे ख्याल. ॥२२३ ॥ अंतर तत्वे योग्यता, धारे सज्जन शिष्य; अंतर आतम ओळखी, थावे प्रभु जगदीश. ॥२२४॥ जगमाय ते आतमा, तीर्थ वडं संसार; सत्य तीर्थ समज्या विना, शोध्यो नहिं कंइ सार. ॥ २२५ ॥ जेयी सहु शोधाय छे, ते तुं आतमराय; अनंत ऋद्धि स्वामी तुं, निजपदने निज गाय. ॥ २२६ ॥ उलटी नदीने उतरी, जावू पेले पार; परमातम पद तेहवू, प्राप्ति दुष्कर धार. ॥ २२७ ॥ टींगेडो उद्यम करे, करु हुँ जलधि शोष; तेवू साहस आत्ममां, करतां छे. संतोष. ॥ २२८ ॥ धर्मध्यान अवलंबता, वर्ते शुद्ध स्वभाव; शुक्लध्यानना अंशने, पामे निजगुण दाव. ॥२२९ ॥ शुक्लध्यानने ध्यावतो, करतो कर्म मणाश; केवलज्ञानोधोतथी, लोकालोक प्रकाश. ॥ २३०॥ घनघाति चड कर्मनी, स्थिति अलगी कीध; दग्ध रज्जुवत् वेदनी, आदि चउ प्रसिद्ध. ॥ २३१॥ आयुः कर्मोदय थकी, विचरे महीतल पीठ; सर्वकर्मना अंतथी, पामे शिवपुर इष्ट. ॥ २३२॥ जन्म मरण तो ज्यां नही, ज्यां नहि शोक वियोगः क्षुधा पिपासा ज्यां नहीं, चिंता नहि ज्यां रोग. ॥ २३३ ॥ शरीर पंचातीत ज्यां, गमनागमनातीत; रूपारूप स्वरूपवंत, नहि ज्यां तृष्णा चित्त. ॥२३४ ॥ भष्टवर्गणा ज्यां नही, लिंग न जाति वेद, पंच इंद्रीने प्राण दश, नहि ज्यां छेदने खेद. ॥२३५ ।। For Private And Personal Use Only

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