Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 03
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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॥७॥
॥८॥
बाधकष्टक्रियामारे भूलेछे भव्य जीवो; नहि चेतन शोधेरे पाडेछे दुःख रीवो. हवे चेतन खोजोरे अन्तरमां लक्ष्मी खरी; अन्तरना तो ध्यानरे जीवोए मुक्ति वरी, उपशम क्षयोपशमथारे क्षायिक साध्य करो; औदायक निवारीरे भवोभव दुःख हरो. शुद्ध आत्मिकभावेरे परिणमो प्रेम करी; शुद्धचारित्रयोगेरे रहे नहि कर्म जरी, चित्तदोषो निवारीरे चेतन ध्यान करो; शुद्ध चेतन पोतेरे अशुद्धता परिहरो. शुद्धपरिणति साधोरे शुद्धोपयोग धरी; जागो शुद्धोपयोगेरे ध्यानमां ईश वरी, शुद्ध आनन्द पामोरे लही नव ऋद्धि खरी, सेवो साधन साचारे अन्तर लक्ष वरी. देखी अनुभव नयनेरे निरंजन नाथ विभु. शुद्ध संयम पुष्पेरे पूजो श्री आत्मप्रभु, मारा अन्तर स्वामीरे खरखर तुंज ग्रह्यो। ज्ञानचक्षु प्रकाशीरे मुक्तिना पंथे वह्यो. जागो शक्ति विलासीरे त्रण भुवन धणी, प्यारा परम जिनेश्वररे खरो घट दिनमणि. खरी शांतिना भोगीरे खरेखर तुं योगी, शुद्ध आनंदस्वामीरे निश्चय नहि रोगी. खरो देव तुं देहेरे निश्चय वात भली, स्थिरचित्तथी ध्यानरे कर्मनी राशि टळी; शुद्धासंख्यप्रदेशीरे नमुं हुं पोताने,
॥ १०॥
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