Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 03
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 186
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७७ निर्मळ केवल ज्ञानमय, निजगुण कर्त्ता धार. निर्मल ज्योति ताहरी, अलख अगोचररूप; निश्चयनयथी ताहरी, सत्ता शुद्ध अनुप. अन्तर देखे योगि जन, बाहिर देखे मूढ; स्वपर प्रकाशी आतमा, अंतरनुंए गूढ. कथनी तारी शुं कथं, तुं कथनीथी दूर; अनेकान्त सत्तामयी, चिदानंद भरपूर. अस्तिनास्ति स्वरूपनुं, तुं छे शाश्वत स्थान; तारा वण बीजो कयो, प्रभु विभु भगवान्. शाश्वत लोकालोकनो, दृष्टा पोते देख; लिंग योनि जाति नहीं, नही नामने भेख. उत्पत्तिव्यय स्थिति रूप, गुण पर्यायाधार; अनुभव अमृत तुं सदा, नही तुं बाह्याचार. मन चंचलता त्यागीने, करजो घटमां खोज; चिदानंद चारित्रनी, मगढे अंतर मोज. अमल अटल अवगाहना, असंख्यप्रदेशे जोय; दृश्यपणे तुज रूपथी, कदी न जुदो होय. परमातम ते हुं सदा, सिद्ध बुद्धनो भाइ; सोहं सोहं अनुभवे, साची होय सगाइ. क्षायिक भावे ऋद्धिनो, भोगी तुं हि सदाय; ध्यावे शुद्ध स्वरूपने, तो सहु ए प्रगटाय. बात करे वळशे नहीं, करतुं निज उपयोग; निज उपयोगी आतमा, अनंत सुखनो भोग. कर्माष्टकनी वर्गणा, ते तो पुद्गलरूप पुदगलधी तं भिन्न छे, मोक्षमयीचिद्रप. For Private And Personal Use Only ॥ १९८ ॥ ॥ १९९ ॥ ॥ २०० ॥ ॥। २०१ ।। ॥ २०२ ॥ ॥ २०३ ॥ || 208 || 11209 11 ।। २०६ ।। 11 200 11 11202-11 ॥ २०९ ॥ ॥ २१० ॥

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