Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 03
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१७६
॥ १८६॥
॥१८७॥
॥१८८ ॥
॥ १८९॥
॥१९॥
॥ १९१ ।।
पुरळ मित्र न ताहरो, तस संगे नहीं सुख, मुख छे एकाकीपणे, पर परिणामे दुःख. महो ज्ञानी पण आतमा, पुद्गलथी बंधाय; पुदल जड शुं जाणतुं, चेतन दुःख उपाय. शाताशाता पुद्गलो, क्षीर नीरज्युं होय । परग्राहक 2 आतमा, सुख दुःख पामे सोय. बाहिरदृष्टि चेतना, परिणमतां छे बंध; बाहिर दृष्टि थावतां, चेतन पोते अंध. अंतरदृष्टि चेतना, करती आतम भान; बंधाये नहीं आतमा, निज भावे गुलतान. आत्मासंख्य प्रदेशथी, करतो स्वयं प्रकाश; द्विउपयोगे चेतना, शाश्वत सिद्ध विलास. स्विरदृष्टिथी धारीये, आतम शुद्ध स्वरूप; भासे आतम ज्ञानमां, लोकालोक स्वरूप. केवल शुद्ध स्वरूपमा, अखंड आनंद होय; बाकी दुनीयादारीमा, दुःखनादरिया जोय. फेकी रत्नचिंतामणि, कोइच्छे मनकाच; क्षणिक मानव मुख हेत, परिहरे केम साच. शाश्वत सत्य ते आतमा, शाश्वत सुखनुं स्थान बाकी सुख न कोइमां, शुं भूले छे भान. गांडा अज्ञानीजना, अंतरमा अंधेर; बाहिर सुखनी लालचे, भमता ठेरंठेर. स्वम सुखलडी भक्षता, भूख न भागे भाई पर पुद्गलथी सुख ते, केवल दुःख सगाइः तुं पोताने पारखे, तुं छे अपरंपार;
॥ १९२ ॥
॥१९३ ।।
॥ १९४ ।।
॥ १९६ ॥
॥ १९ ॥
For Private And Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218