Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 03
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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॥ १६४ ।।
॥१६५ ।।
॥१६६॥
१७४ पुरुषार्थ प्रेमे ग्रही, करशे मन आधीन आतम अर्थी तेजनो, कोइ न वाते दीन. आडं अवटु दोडतुं, मनडु मोडं झेर; यावत् मन नवी झीतीयुं, तावत् छे अंधेर. मन चंचलता शुं करे, मन चंचलता वार; मुक्ति सन्मुख मन करो, पामो भवजल पार. विषय भीख भोगी यदा, मनटुं हारु होय; तावत् भ्रमणा भवतणी, करो न संशय कोय. मन मारो निजध्यानथी, वारो विषय विचार; फरी फरी मळशे नहीं, मानवनो अवतार. द्वेषी तज तुं द्वेषने, द्वेषी शाने थाय; द्वेषीजन संसारमा, चतुर्गति भटकाय. द्वेष न तारो धर्म छे, परपरिणतिथी द्वेष, नाहक द्वेषकरी भवी, पामो भवमा क्लेश. शुद्ध स्वरूपी तुं सदा, निर्मल सिद्ध समान; पर पोतानुं मानीने, शं तुं भूले भान. परपरिणतिथी तुं सदा, न्यारो चेतनराय; आपोआप विचारता, अनुभव पोते पाय. इसतो रोतो तुं नही, तुं छे गमनातीत; देह भाटकनी कोटडी, त्यां शुं ममता चित्त. अनंत देहो मूकीयां, तेवी छे आ देह; न्यारो तेथी आतमा, चिदानंद गुण गेह. उपजे विणशे तुं नही, तुं अविनासी जाण; अजरामर आतम प्रभु, मुखनु तु छे ठाण. अनंत शक्तिमय सदा, अनंत ऋद्धि मूळ;
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॥१७२।।
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