Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 03
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 171
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१२॥ ॥१३॥ ॥ १५ ॥ ॥ १६॥ पृथ्वी अपने तेजवळी, वायुकाय मजार; सूक्ष्म बादर भेदथी, भटक्यो जीव अपार. साधारण प्रत्येक बे, वनस्पतिना भेद; भटक्यो वार अनंति त्यां, विविध पामी खेद. बहिरातम पद त्यां ग्रयुं, लडुं न आतम भान; भूल्यो भारे कर्मथी, शुद्ध बुद्ध भगवान्. काल अनन्तो, त्यां रह्यो, दुःख ज्या श्वासोच्छ्वास भवितव्यता योगयी, बेरेंद्रिमा वास. विचित्र देहो त्या ग्रहां, नाम रूपना योगः ... तेरेंद्रि चौद्रिमां, थइयो दुःखनो भोग. एम अनंता भव भमी, पंचेंद्रि अवतार पंचेंद्रिमा चार भेद, देवादिक मन धार. काल अनंतो वीतियो, बहिरातम पद बुद्धि भेद ज्ञानना योगवण, लही न आतम शुद्धि. पर भव कोने देखियो, क्या ईश्वर देखाय; खा, पी, पहेरवू, सत्यपणे मन लाय. पुण्य पाप दीसे नही, स्वर्ग बतावो भाई; पाप पुण्यनी कल्पना, जगमा बडी ठगाई. भोळा त्यां भरमाय छे, करे विचारो एम; बहिरातमपद वासिया, भवजलधि तरे केम. दान करेथी शुं हुवे, जाप जपे शुं थाय; धूर्त जनोनी कल्पना, भोळा त्यां भरमाय. एवी बुद्धि जेहनी, ते बहिरातम दीन; धर्म मर्म समझे नहि, सद्गुरु संगति हीन. पंचतत्व पूतळ, आतम मानो देह ॥ १८॥ ॥ १९ ॥ ॥ २०॥ ॥ २१ ॥ ॥२२॥ For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218