Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 03
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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१७१ गुर्वाधीन मनडे करो, पामो निज घर भान. श्रद्धा भक्ति गुरु तणी, जेवी मनमां होय; तदनुसारे तत्त्वने, पामे. भविका कोय. प्रिया प्राणने पुत्रथी, अधिको गुरुनो राग; गुरु वचने गुणधर्म ने, पामे भवि सौभाग्य. असंख्यआत्मप्रदेशमय, आतम तत्त्व विचार; आतम ते परमातमा, सिद्ध बुद्ध निरधार. पगथी शिर पर्यंत जे, पुद्गलरूपि देह; वश्यो म्यानमां खड्गज्यु, निराकार गुण गेह. नहि इन्द्रियो आतमा, मन वाणीथी भिन्न; अंतर आतम ओळखो, तेनुं ए आकीन. लेश्या योग न आतमा, नहि वर्गणा आठ; अंतर आतम ओळखो, तेनो एछे पाठ. कर्ता छे निज रूपनो, अचळ अकळ भगवान्। शक्ति अनंति शाश्वती, देता निजगुण दान. अमल अटल आधारवंत, वेत्ता पण नहीं वेद; सूक्ष्मथी पण सूक्ष्मए, ज़रा नहि प्रस्वेद. काल अनादि योगथी, मिथ्या परिणति पीन; कर्मरूप पुद्गल ग्रही, जिन पण थइयो दीन. जड पुदगल संगे रही, भूल्यो निजगुण भान; गुरु वचनामृत त्यागिने, कीधुं विषतुं पानः सत्ता बे मारी खरी, करी न तेनी याद; तिरोभाव निज ऋद्धिमुं, हेतु छे परमाद. पर पोतानुं मानीने, रझल्यो हुँ परदेश मोहमायामां मस्त थई, विविध पाम्यो क्लेश.
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