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का त्याग करने से अकर्कश-वेदनीय (जो दुःखद नहीं - सुखद हो) कर्म बाँधता है (भाग ३ पृ. ११५३) इससे सिद्ध हो रहा है कि विरति = संयम से पुण्य-बन्ध होता है ।
उत्तर-यह विधान अपेक्षापूर्वक हुआ है । ऐसा हा विधान श. ५ उ. ६ भा. २ पृ. ८३९ तथा ८४३ तथा श. ७ उ. १० पृ.१२ २४ में भी हुआ है । प्रश्नकार ने कर्म-बन्ध की मुख्यता से प्रश्न पूछा है। प्रश्न है --दुःखदायक कर्म किस आचरण से बन्धता है और सुख-दायक कर्म बांधने का क्या उपाय है ? इसके उत्तर में उपरोक्त विधान है, सो यह भी पूर्व-तप पूर्व-संयमवत् ठोक ही है। क्योंकि सराग-दशा में राग के कारण कर्म-बन्ध होता रहता है।
पुण्य-प्रकृति तो प्रथम गुणस्थान में भी बन्धती है और चतुर्यादि गुणस्थानों में भी। फिर विरति एवं संयम और तप का महत्त्व ही क्या रहा ? इसी सूत्र के आगे पृ. ११५६ में साता-वेदनीय कर्म-बन्धने का कारण--"पाणाणकंपयाए भयाणकंपयाए............ आदि भी बतलाया है । प्राणानुकम्पा तो प्रथम गुणस्थान में भी हो सकती है और आगे, अविरत के भी और विरत के भी। फिर विरति का महत्त्व ही क्या ? प्राणानुकम्पा में प्रशस्त राग और पर-दृष्टि मुख्य रहती है और विरति में विराग-निर्वेद मुख्य रहता है। इसीसे वीतरागता की ओर गति होती है। : ...... भगवती सूत्र के उपरोक्त विधान 'बन्ध-सापेक्ष' हैं । प्रश्न भी बन्ध की अपेक्षा से ही पूछा गया है। जब तक कषायोदय रहता है, तब तक बन्ध (साम्परायिकी-क्रिया जन्य बन्ध) होता रहता है । निर्दोष-संयमी के भी बन्ध होता है । संयम निर्दोष हो, तो संवरनिर्जरा विशेष होती है, परन्तु कषायोदय के कारण बन्ध तो होता रहता है । इसीलिए निर्दोष संयमी को 'कषाय कुशील' कहा है (श. २५. उ. ६ पृ. ३३६७) और इनके ६, ७ या ८ कर्मों का बन्ध होता है (पृ. ३४०९) ।
प्रश्न--कषाय ही नहीं, योग से भी बन्ध होता है । आप कषाय से ही बन्ध कैसे बताते हैं ?
उत्तर--हाँ, बन्ध कषाय और योग--दोनों से होता है, किन्तु मुख्यता कषाय की है। योग तो कर्मवर्गणा को आकर्षित कर के आत्म-प्रदेशों से जोड़ते हैं और प्रकृति बन्ध तक रह जाते हैं । किंतु उनमें रस और स्थिति तो कषाय के अनुसार ही वन्धती है । अतएव योग महत्त्वपूर्ण नहीं है । अकषायी भगवान् के कषायोदय नहीं होता, केवल योग ही होता है--ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक। उनके केवल स्पर्श मात्र--दो समय की स्थिति वाला ही बन्ध होता है । अतएव योग महत्त्वपूर्ण नहीं है । योग का काम राजा या उच्चा
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