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स्थापनाजी स्थापित करने की विधि (१) इत्वरकथित स्थापना की विधि : सम्यग्ज्ञान- आगे रखकरमंगल हेतु श्री नवकारमन्त्र'बोलकर उसके बाद पंचिंदिय दर्शन-चारित्र के उपकरण को चौकी पर रखकर (जो सूत्र'बोलना चाहिए। नाभि के ऊपर तथा नाक से नीचे रहे) इस प्रकार (२)स्थापनाजी उत्थापन की विधि :सारी क्रियाएँ पूर्ण हो जाने के बाद गुरुभगवन्त के ३६ गुणों की स्थापना की जाती है। दाहिने हाथ को सीधा रखकर बाएं हाथ में मुख के आगे मुंहपत्ती रखकर उसके समक्ष दाहिना हाथ (सर्पाकाररूप) स्थापना मुद्रा उत्थापन मुद्रा में श्री नवकारमन्त्र गिनना चाहिए। यह क्रिया करने के बाद में रखना चाहिए तथा बायें हाथ से मुहपत्ति को मुख के स्थापित वस्तुको हिलाया जा सकता है।
यावत्कथित स्थापनाचार्यजी के प्रतिलेखन की विधि खमासमणा (सत्रह संडासा के रूप में ) देकर श्री ईरियावहियं' करके १३ बोल से पडिलेहन करना चाहिए।
स्थापनाचार्यजी के प्रतिलेखन के १३ बोल (१) शुद्धस्वरूप के धारक गुरु, (२) ज्ञानमय, (३) दर्शनमय, (४) चारित्रमय, (५)शुद्ध श्रद्धामय, (६)शुद्ध प्ररूपणामय, (७) शुद्ध स्पर्शनामय (८-९-१०) पंचाचार का पालन करे, करावे व अनुमोदन करे, (११) मनगुप्ति (१२) वचनगुप्ति व (१३) कायगुप्ति से गुप्त।
प्रतिलेखन करने का क्रम प्रातःकाल के प्रतिलेखन में दोनों हाथ जोड़कर दोनों हाथों से आदरपूर्वक ठवणी पर रखना चाहिए।
र स्थापनाचार्यजी को ग्रहण कर (महपत्ति-रुमाल- झोली =२५ बोल से, ठवणी- पाटली स्थापनाचार्यजी की झोली को २५ बोल से प्रतिलेखन = १० बोल से तथा स्थापनाचार्यजी को १३ बोल से प्रतिलेखन) करनी चाहिए । फिर झोली से ठवणी के दण्डे को १०- अक्ष एक-दूसरे को स्पर्श न करें, वैसे रखना चाहिए । (ठवणी १० बोल से प्रतिलेखन कर झोली को ठवणी पर रखना | उत्तम द्रव्य (चन्दन की लकड़ी) की होनी चाहिए।) चाहिए । स्थापनाचार्यजी को (मुहपत्ति सहित) पू. साधु-साध्वीजी भगवन्त दोनों समय स्थापनाचार्यजी की प्रतिलेखन किए हुए शुद्धवस्त्र (कम्बल आदि) पर पडिलेहणा करे तथा पौषधार्थी श्रावक-श्राविकाओं को भी दोनों रखनी चाहिए । स्थापनाचार्यजी के ऊपर रखी हुई प्रथम समय स्थापनाचार्यजी की प्रतिलेखन करनी चाहिए । यदि
हपत्ति को २५ बोल से प्रतिलेखन करनी चाहिए । उस स्थापनाचार्यजी की आवश्यकता न हो तो चतुर्विध श्रीसंघ (साधमुंहपत्ति को दाहिने हाथ की उंगलियों से पकड़कर साध्वीजी तथा श्रावक-श्राविका) उस स्थापनाचार्यजी को प्रत्येक अक्ष (स्थापनाचार्यजी) को १३-१३ बोल से भलीभांति ढंककर रखें, इस प्रकार वास -(क्षेप) चूर्ण ऊपर-नीचे प्रतिलेखन करनी चाहिए । प्रतिलेखन की हुई पाटली पर रखकर योग्य साधन में रख देना चाहिए। अनुक्रम से अक्ष (स्थापनाचार्यजी) को रखे तथा उसके स्थापनाचार्यजी साढ़े तीन हाथ की दूरी पर रखना चाहिए । ऊपर प्रतिलेखन की हुई प्रथम मुहपत्ति से ढंकना चाहिए इसे अपने शरीर का पिछला भाग न दिखे, उसका ध्यान रखना । उसके बाद क्रमशः दो मुंहपत्ति तथा उसके ऊपर खुले चाहिए। क्रियाएँ करते समय स्थापनाचार्यजी यदि दरवाजे के अन्दर दो रुमालों को २५-२५ बोल से प्रतिलेखन करना हो तो उसके अन्दर जाकर ही क्रियाएँ करनी चाहिए । चाहिए । प्रतिलेखन की हुई सभी मुहपत्ति आदि को स्थापनाचार्यजी का आदर करने के लिए बिना कारण के उसे एक क्रमशः रखकर स्थापनाचार्यजी को व्यवस्थित रखना स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं ले जाना चाहिए । स्थापनाचार्यजी की चाहिए तथा झोली बाँधकर ठवणी के ऊपर स्थापना स्थापना करने से पहले "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! श्री करनी चाहिए । दोपहर के प्रतिलेखन के समय झोली- सुधर्मास्वामी स्थापना स्थापित करूँ?" इस प्रकार आदेश मांगने ठवणी तथा दो रुमालों व तीन मुहपत्तियों का पडिलेहण की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि स्थापनाचार्यजी की स्थापना से करने के बाद स्थापनाचार्यजी (अक्षों) की क्रमशः पहले उससे आज्ञा कैसे मांगी जा सकती है ? । साधक यदि किसी प्रतिलेखन करने के बाद पाटली की प्रतिलेखन करनी कारण से कुर्सी (CHAIR) पर बैठकर क्रियाएँ करता है, तो वह भी चाहिए। उसके बाद पाटली पर अक्षों (स्थापनाचार्यजी) स्थापनाचार्यजी की स्थापना इस तरह करे कि वह नाभि से ऊपर की स्थापना कर मुहपत्ति से ढंककर तथा उसे बांधकर और नासिका से नीचे रहे। tion
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