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गाथार्थ : चोथे अणुव्रत में नित्य पर-स्त्री से निवृति और स्वदारा में संतोषरुप विरति के आश्रय से आचरण (होता है।), उसमें प्रमाद से व अप्रशस्त भाव से (१) अपरिगृहिता-गमन : किसी ने भी जिस स्त्री को ग्रहण नहीं किया है, वैसी कुंवारी कन्या अथवा विधवा आदि के साथ मैथुन सेवन करना, (२) इत्वर-परिगृहिता गमन : थोड़े दिनों के लिए दूसरो ने रखी हुई वेश्या ( रखैल) आदि के साथ मैथुन सेवन करना, ('स्वद्वारा संतोष' के नियमवाले को यह दोनो ही अतिचार, अनाचार स्वरुप समझना चाहिए।) (३) अनंग-क्रीडा : दूसरो की स्त्रीयों के अंग उपांग आदि को विकार द्रष्टि से देखना तथा सृष्टि विरुद्ध (सजातीय संबंध आदि) कामचेष्टा करना, (४) परविवाह करण : अपने पुत्र-पुत्री आदि के सिवाय दूसरों के पुत्र-पुत्री का विवाह करना-करवाना और (५) कामभोग-तीव्र अभिलाषा : विषय वासना से काम-क्रीडा आदि की तीव्र अभिलाषा करने (रुप) (वह) चोथे (अणु) व्रत के अतिचारों ( होते हैं।), उसमें दिन संबंधित (लगे हुए) सभी (अतिचारों) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। १५-१६.
पांचवे अणुव्रत के अतिचार का प्रतिक्रमण इत्तो अणुव्वए पंच मम्मि, इत्-तो अणुव्-वए पञ् (पन्)-च-मम्-मि, अब पांचवें अणु-व्रत में आयरिय-मप्प-सत्थंमि । आय-रिअ-मप्-पसत्-थम्-मि ।
अतिचारों का अप्रशस्त भाव के कारण परिमाण-परिच्छेए, परि-माण-परिच-छे-ए,
परिग्रह के परिमाण (मर्यादा) में इत्थ-प-मायप्प-संगेणं ॥१७॥ इत्-थ पमा-यप्-प-सङ्-गे-णम् ॥१७॥ यहा प्रमाद के कारण । १७. धण-धन्न-खित्त-वत्थू, धण-धन्-न-खित्-त-वत्-थू,
धान,धन्य, जमीन, मकान के, रुप्प-सुवन्ने अ-कुविअ-परिमाणे। रुप्-प-सुवन्-ने अ कुवि-अ-परि-माणे। चांदी, सुवर्ण और (अन्य) धातुओं के, दुपए चउप्पयंमि य, दुप-ए चउप-प-यम्-मि य,
द्विपद ( दो पांव वाले-पशु आदि)
प्राणियों के परिमाण में पडिक्कमे देसिअंसव्वं ॥१८॥ पडिक-कमे देसि अम् सव्-वम् ॥१८॥ दिन में लगे सर्व (अतिचारों ) का मैं
प्रतिक्रमण करता हूँ।१८. गाथार्थ : उसके बाद पाँचवे अणुव्रत में धन-धान्य आदि के परिग्रह का परिमाण रुप विरति के आश्रय से आचरण (होता है।), उसमें प्रमाद से व अप्रशस्त भाव से (१)धन, (२) धान्य खेती करने योग्य जमीन, घर विगेरे (३) चांदी-सोना (४) तांबा, पित्तल, कांसा आदि अन्य धातुओ के परिमाण मैं और गृह आदि सजावट की सामग्री के परिमाण में और(५) द्विपद = (नोकर, सेवक, मुनिम आदि) तथा चतुष्पद (= गाय, भैंस, घोडा, कुत्ता, बिल्ली, पोपट आदि) के परिमाण से अधिक रखने (रुप),(वह) पांचवे (अणु) व्रत के अतिचारों ( होते हैं।), उसमें दिन संबंधित (लगे हुए) सभी (अतिचारों) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।१७-१८.
इतो अणुव्वए पंचमम्मि
न
धन्न
वत्थु
खित्त
धण
दुपए चउप्पयम्मी य
रुप्प-सुक्ने
सअकुविअपरिमाणे
उड़
गमणरसयपरिमाणे
अहे अ.
तिरिअंच
ऊर्ध्वगमन के लिए एयरोप्लेन,अधोगम न के लिए सबमरीन या डाइवर्स आदि
तथा तिछागमन के लिए गाडी-मोटरआदि बतलाए गए हैं।१७-१८.
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