________________
ॐ श्री ही-धति-मति- ओम् श-री-ह-री-धुति-मति- ॐ-श्री ही संतोष, मति (= दीर्धदष्टि) कीर्ति-कान्ति-बुद्धि- कीर-ति-कान्-ति-बुद्-धि- कीर्ति, शोभा, बुद्धि, लक्ष्मी-मेधा-विद्या-साधन- लक्षु-मी-मेधा-विद्-या-सा-धन-संपत्ति, धारण करने की बुद्धि (= मेधा), विद्या की साधना में प्रवेश-निवेशनेषु- प्र-वेश-नि-वेश-नेषु
योग के प्रवेश में, मन्त्र जापादि के निवेशन में सुगृहीत-नामानो- सु-गृहीत-नामा-नो
जिनका नाम आदरपूर्वक ग्रहण किया जाता हैं। जयन्तु ते जिनेन्द्राः ॥६॥ जयन्-तु ते जिनेन्-द्राः ॥६॥ जय को प्राप्त हों, वे जिनेन्द्र ।६. अर्थ : ॐ श्री,हीं धृति, कीर्ति, कान्ति, लक्ष्मी और मेधा इन नौ स्वरूपों वाली सरस्वती की साधना में, योग के प्रवेश में तथा मन्त्र-जप के निवेशन में जिनके नामों का आदर-पूर्वक उच्चारण किया जाता है, वे जिनवर जय को प्राप्त हों-सान्निध्य करनेवाले हों । ६. ॐ रोहिणी-प्रज्ञप्ति-वज्रशृङ्खला- ओम् रोहि-णी-प्रज्ञप्-ति-वज्-र-शृङ्-खला- ॐ रोहिणी, प्रज्ञप्ति,वज्रश्रृङ्खला, वज्राङ्कुशी-अप्रतिचक्रा- वज्-राङ्-कुशी-अप्र-ति-चक्-रा- वज्राङ्कुशी, अप्रतिचक्रा, पुरुषदत्ता-काली-महाकाली- पुरु-ष-दत्-ता-काली-महाकाली
पुरुषदत्ता, काली, महाकाली, गौरी-गान्धारीगौरी-गान्-धारी
गौरी, गान्धारी, सर्वास्त्र महाज्वाला-मानवी- सर्-वास्-त्र-महाज-वाला-मानवी
सभी अस्त्रोंवाली महाज्वाला, मानवी, वैरोट्या-अच्छुप्ता-मानसी- वैरोट्-या अच्-छुप्-ता-मान-सी
वैरोट्या, अच्छुप्ता, मानसी, महामानसी-षोडश-विद्या-देव्यो- महा-मान-सी-षोड-श विद्-या-देव-यो- महामानसी, ये सोलह विद्यादेवियारक्षन्तु वो नित्यं स्वाहा ॥७॥ रक्-घन्-तु वो नित्-यम् स्वा-हा ॥७॥ रक्षण करें, तुम्हारा नित्य स्वाहा । ७.. अर्थ : ॐ रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रशृङ्खला, वज्राकुशी, अप्रतिचक्रा, पुरुषदत्ता, काली, महाकाली, गौरी, गान्धारी, सर्व अस्त्रों वाली महाज्वाला, मानवी, वैरोट्या, अच्छुप्ता, मानसी और महामानसी, ये सोलह विद्यादेवियाँ तुम्हारा रक्षण करें। ७. ॐ आचार्योपाध्यायओम् आचार-यो-पा-ध्याय
ॐ आचार्य, उपाध्याय प्रभृति-चातुर्वर्णस्यप्र-भृति-चातुर्-वर-णस्-य
आदि चार प्रकार के श्रीश्रमण-सङ्घस्यश्री-श्र-मण-सङ्-घस्-य
श्री श्रमण संघ के लिये शान्तिर्भवतु-तुष्टिर्भवतुशान्-तिर-भ-वतु-तुष्-टिर-भ-वतु
शान्ति हों, तुष्टि हों, पुष्टिर्भवतु ॥८॥ पुष्-टिर-भ-वतु ॥८॥
| पुष्टि हों । ८. अर्थ : ॐ आचार्य; उपाध्याय आदि चार प्रकार के श्रीश्रमण-सङ्घ के लिये शान्ति हो, तुष्टि हो, पुष्टि हो । ८. ॐ ग्रहाश्चन्द्र-सूर्याङ्-गारक- ओम् ग्रहाश्-चन्-द्र-सूर्-याङ्-गा-रक- ॐ नौ ग्रहादि, चन्द्र-सूर्य, मंगल, बुध-बृहस्पति-शुक्र-शनैश्चर- बुध-बृहस्-पति-शुक्-र-शनैश्-चर- बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु-केतु-सहिताः सलोकपालाः राहु-केतु-सहि-ताः स-लोक-पालाः । | राहु, केतु सहित, लोकपाल के देव सहित, सोम-यम-वरुण-कुबेर- सोम-यम-वरु-ण-कु-बेर
सोम, यम, वरुण, कुबेर, वासवादित्य-स्कन्दवास-वा-दित्-य-स्कन्-द
इन्द्र, बारह संक्रान्ति के सूर्य, कार्तिकेय, विनयकोपेता-ये चान्येऽपि- वि-नय-को-पेता-ये चान्-ये-पि- गणेश सहित जो दूसरे भी ग्राम-नगर-क्षेत्र-देवताऽऽदयस्ते ग्-राम-नग-र-क्षेत्र-देव-ता-दयस्-ते- ग्राम, नगर और क्षेत्र के अधिष्ठायक देव आदि, सर्वे प्रीयन्तां प्रीयन्ताम्, स-वे प्रीयन्-ताम् प्रीयन्-ताम्
वह सभी प्रसन्न हों- प्रसन्न हों, अक्षीण-कोश-कोष्ठागारा- अक्-षीण-कोश-कोष्-ठा-गारा- अक्षय भंडार, धान्य के कोठार वाले नरपतयश्च-भवन्तु स्वाहा ॥९॥ नर-पत-यश्च-भ-वन्-तु स्वा-हा ॥९॥ राजाओ प्राप्त हो । स्वाहा । ९. अर्थ : ॐ चन्द्र, सूर्य, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु सहित नौ ग्रह; लोकपाल के देव सहित, सोम, यम, वरुण, कुबेर, इन्द्र, बारह संक्रान्ति के सूर्य, कार्तिकेय और गणेश सहित, जो दूसरे भी ग्राम, नगर और क्षेत्र के अधिष्ठायक देव आदि, सभी पसन्न हों-प्रसन्न हों । राजाओ धान्य के कोठार वाले अक्षय भण्डार प्राप्त हों । स्वाहा । ९.
२६९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org