Book Title: Avashyaka Kriya Sadhna
Author(s): Ramyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
Publisher: Mokshpath Prakashan Ahmedabad

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Page 222
________________ प्रतिक्रमण के समय बोलने की मुद्रा । ५०. श्री सकलतीर्थ वंदना सूत्र आदान नाम : श्री सकलतीर्थ सूत्र : श्री तीर्थ वंदना सूत्र गौण नाम गाथा पद संपदा गुरु अक्षर लघु अक्षर कुल अक्षर : १५ : ६० : ६० : ५५ : ५७८ ६३३ उच्चारण में सहायक मूल सूत्र सकल तीर्थ वंदूं कर जोड, सकल तीर्थ वन्-दुं कर- जोड, जिनवर - नामे कोड । जिन - वर नामे मङ्-ग-ल कोड । पहेले स्वर्गे लाख बत्रीश, पहेले स्वर्गे लाख बत्-रीश, जिनवर चैत्य नमुं निशदिश ॥१॥ जिन-वर- चै -त्य नमुं निश-दिश ॥१॥ गाथार्थ : सकल तीर्थों को हाथ जोड़कर मैं वंदन करता हूँ। जिनेश्वर के नाम बत्तीस लाख जिनेश्वर के चैत्यों को रात दिन मैं नमस्कार करता हूँ । १. बीजे लाख अट्ठावीश कह्यां, बीजे लाख अट्-ठा-वीश कह्यां, त्रीजे बार लाख सद्दह्यां । त्रीजे बार लाख सद्-दह्यां । चोथे स्वर्गे अडलख धार, चोथे स्वर्गे अड-लख-धार, पांचमे वंदुं लाख ज चार ॥२॥ पाञ्- ( पान् ) - चमे वन्-दुं लाख ज चार ॥२॥ गाथार्थ : दूसरे स्वर्ग मैं अट्ठाईस लाख, तीसरे (स्वर्ग) में बारह लाख, चौथे जिनमंदिरों का वर्णन किया गया है। उनको मैं वंदन करता हूँ । २. छट्ठे स्वर्गे सहस पचाश, सातमे चालीश सहस प्रासाद । आठमे स्वर्गे छ हजार, अपवादिक मुद्रा । छंद का नाम : चोपाई; राग : दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोई ... (कबीर दुहें) पद क्रमानुसारी अर्थ सब तीर्थों को हाथ जोड़ कर मै वंदन करता हूँ । जिनवर के नाम से करोड़ों मंगल होते हैं। पहले स्वर्ग में (स्थित) बत्तीस लाखजिनवर के चैत्यों को में नमस्कार करता हूँ । १. से करोड़ों मंगल होते हैं। पहले स्वर्ग में ( स्थित ) अग्- यार- बार मे त्रण से सार; नव-ग्रैवेयके त्रण-सें अढार । विषयः तीन लोकवर्ती शाश्वत अग्यार बारमे त्रण से सार, नव ग्रैवेयके त्रण से अढार । पांच अनुत्तर सर्वे मली, लाख चोराशी अधिकां वली ॥४॥ गाथार्थ : ग्यारहवें और बारहवें (स्वर्ग) में तीन सौ, नव ग्रैवेयक (विमानों) (विमानों) में पांच एवं सभी मिलकर चौरासी लाख से अधिक चैत्य हैं। उनको मैं | अशाश्वत अरिहंतप्रभु | के चैत्य तथा बिंबों की वंदना व | गुरु की वन्दना । दूसरे में अट्ठाईस लाख कहे हैं, तीसरे में बारह लाख माने हैं, चौथे स्वर्ग में आठ लाख को धारण कर, पाञ् (पान्)-च अनुत्-तर सर्-वे मली, लाख चोराशी अधिकां वली ॥४॥ Private & Personal Lis पाँचवें में चारलाख को मैं अवश्य वंदन करता हूँ । २. स्वर्ग में आठ लाख, पांचवे (स्वर्ग) में चार लाख, छट्-ठे स्वर्गे सहस पचाश, सा- तमे चाली-श सहस प्रासाद । आठमे स्वर्गे छ हजार, नव-दश-मे वन्-दुं शत चार ॥३॥ नव दशमे वंदुं शत चार ॥ ३ ॥ गाथार्थ छट्ठे स्वर्ग में (स्थित) पचास हजार (चैत्यों ) को, सातवें (स्वर्ग) में (स्थित) चालीस हजार चैत्यों को आठवें स्वर्ग में (स्थित) छह हजार (चैत्यों) को एवं नौवें दसवें (स्वर्ग) में (स्थित) चारसो (चैत्यों) को मैं वंदन करता हूँ । ३. छट्ठे स्वर्ग में पचास हजार को सातवें में चालीस हजार प्रासाद को आठवें स्वर्ग में छह हजार को नौवें और दशवे में चार सौ को । ३. ग्यारहवें और बारहवें में तीन सौ सार रूप हैं, नव ग्रैवेयक में तीन सौ अट्ठराह, पांच अनुत्तर में सब मिलाकरचौरासी लाख और अधिक । ४. में तीन सौ अट्ठारह और (पांच) अनुत्तर वंदना करता हूँ । ४. सहस सत्ताणुं त्रेवीश सार, जिनवर भवन तणो अधिकार । लांबा सो जोजन विस्तार, पचास ऊंचां बहोंतेर धार ॥५॥ गाथार्थ : शास्त्रोक्त वचन अनुसार सौ योजन लंबे, पचास योजन चौडे और बहतर योजन ऊंचे, ऐसे सत्तानवे हजार और तेवीस संख्या में श्री जिनमंदिर हैं । ५. सहस - सत्-ताणुं त्रेवीश सार, जिन - वर भवन- तणो-अधि-कार । लाम्बा सो जोजन विस् तार, सत्तानवे हजार तेईस सार, जिनेश्वर के भवनों का अधिकार हैं। एक सौ योजन लंबे चौडे पचास योजन ऊंचे बहत्तर । ५. पचा-स ऊञ् (ऊन्)-चां बहोन्-तेर धार ॥५ ॥ Jain Education/ 238 praty

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