Book Title: Avashyaka Kriya Sadhna
Author(s): Ramyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
Publisher: Mokshpath Prakashan Ahmedabad

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Page 259
________________ तं मोएउ अनंदि, तम् मोए-उ अनन्-दिम्, वह युगल (भव्य जीवों को) हर्ष कराये, समृद्धि प्राप्त कराये, पोवेउ अनंदि- पोवे-उ अनन्-दि श्री नंदिषेण को समस्त प्रकार से सेण-मभिनंदि। सेण-मभि-नन्-दिम्। आनंद प्रदान करें। परिसा वि अ सुहनंदि, परिसा वि असुह नन्-दिम्, श्रोताजनों की सभा को भी सुख-समृद्धि प्रदान करें, मम य दिसउ संजमे- मम य दिस-उसञ् (सन्)-जमे- मुझे तथा दीजिए संयम में नंदि ॥ ३७॥ (गाहा) नन्-दिम् ॥ ३७॥ (गाहा) आनंद । ३७. अर्थ : ये युगल इस स्तोत्र का अच्छी तरह से पाठ करने वालों को हर्ष प्रदान करें। इस स्तोत्र के रचयिता श्री नन्दिषेण को अति आनन्द प्राप्त कराये और इसके सुनने वालों को भी सुख तथा समृद्धि प्रदान करें; तथा अन्तिम अभिलाषा यह है कि मेरे (नन्दिषेण के) संयम में वृद्धि करें। ३७. पक्खिअ-चाउम्मासिअ- पक्-खिअचाउम्-मासि-अ- पाक्षिक(१५ दिनके),चातुर्मासिक(चारमहीने के)और संवच्छरिए अवस्स सर्वं (सम्)-वच्-छ-रिए अवस्-स-सांवत्सरिक (एक वर्ष के) प्रतिक्रमण में अवश्य भणिअव्वो। भणि-अव-वो। पढना चाहिए और सोअव्वो सव्वेहिं, सो-अव्-वो सव-वेहिम्, सुनाना चाहिए सबकोउवसग्ग-निवारणो एसो॥३८॥ उव-सग्-ग निवा-रणो एसो॥३८॥ उपसर्गका निवारण करनेवाला यह।३८. अर्थ : उपसर्ग का निवारण करनेवाला यह (श्री अजित-शान्ति-स्तव) पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में अवश्य पढ़ना और सब को सुनाना चाहिये । ३८. जो पढइ जो अनिसुणइ, | जो पढ-इ जो अनिसु-णइ, जो बोलता है, और जो सुनता है, उभओ कालं पिउभ-ओ कालम्-पि सुबह शाम के उभय काल में भी यह अजिअ-संति-थयं । अजि-अ-सन्-ति-थयम्। श्री अजित शान्ति स्तव को न हु हुंति तस्स रोगा, न हु-हुन्-ति तस्-स रोगा, नहीं निश्चय से होते उसको रोग, पव्वुप्पन्ना वि नासंति ॥३९॥ पु-वुप्-पन्-ना वि-ना-सन्-ति ॥३९॥ पहले उत्पन्न हुए रोग भी नाश पाते हैं । ३९. अर्थ : यह "अजित -शान्ति-स्तव" जो मनुष्य प्रातःकाल और सायङ्काल बोलता है अथवा दूसरों के मुख से नित्य सुनता है, उसको निश्चय से रोग होते नहीं और पूर्वोत्पन्न हों, तो वे भी नष्ट हो जाते हैं । ३९. जइ इच्छह परम-पयं, जइ इच-छह परम-पयम्, यदि चाहते हो परम पद को अहवा कित्तिं सुवित्थडं भुवणे। अह-वा कित्-तिम् सुवित्-थडम् भुव-णे। अथवा कीर्ति सुविस्तृत जगत में तो तेलुक्कुद्धरणे, ता तेलुक्-कुद्-धर-णे, तो तीनों लोकों का उद्धार करने में समर्थ, जिण-वयणे आयरं कुणह॥४०॥ जिण-वय-णे आय-रम्-कण-ह॥४०॥ ऐसे जिन-वचन के प्रति आदर करो। ४०. अर्थ : यदि परम पद (मोक्ष) को चाहते हो अथवा इस जगत में अत्यन्त विशाल कीर्ति को प्राप्त करना चाहते हो तो तीनों लोकों का उद्धार करने में समर्थ, ऐसे जिन-वचन के प्रति आदर करो। ४०. अशुद्ध शुद्ध अशुद्ध अशुद्ध शुद्ध निरुवममहपभावे निरुवममहप्पभावे गुणेहिम जिट्टा । गुणेहिं जिट्टा आहवा कित्ति अहवा कित्तिं भाविअपभावणेअ भाविअप्पभावणेअ निचियं च गुणेहि निचियं च गुणेहिं ता तेलुकुधरणेता तेलुक्कुद्वरणे पंडिअयाहि पिंडिअयाहिं वंदिऊण तोऊण तो वंदिऊण थोऊण तो दुक्खपसंतीणं । दुक्खप्पसंतीणं गड़ गय सासयं गई गयं सासयं धरणिधरपवराईरअ धरणिधरप्पवराइरेअ समाहिनिहि समाहि निहिं पिंडिअयाहि पंडिअयाहिं सभवनाइ तो सभवणाई तो पावपसंतीणं पावप्पसंतीणं ते मोएउ अ नंदितं मोएउ अनंदिं पावइ नत्तं पावइ न तं विआरणिआहि विआरणिआहिं सुविकमकमा सुविक्कमा कमा पक्खिअ चउमासिअ पक्खिअ चाउम्मासिअ सुहपवतणं सुहप्पवत्तणं सुइसुअमणाभिराम । सूइसुहमणाभिराम सिरिरईअंजलि । सिररडअंजलि मंडणोडणपगारएहि मंडणोडणप्पगारएहिं विब्भमपगारएहि विब्भमप्पगारएहिं पुव्वुपन्ना पुव्वुप्पन्ना धिई मई पवतणं | धिई-मई-प्पवत्तणं दंत पंति दंतिपंति चलकुंडलगय । चलकुंडलंगय पत्तलेअनामेहि पत्तलेहनामएहिं २६६ forate & Personel Jain Ede swww.jainelibrary.org

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