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६. तीन दिशाओं के निरीक्षण त्याग स्वरूप दिशि त्याग त्रिक: प्रभुजी के सम्मुख स्थापित दृष्टि से युक्त होकर तथा अपने
पीछे, दाहिनी तथा बाई दिशा में देखने का त्याग करना। ७. प्रमार्जना त्रिक
: प्रभुजी की भावपूजा स्वरूप चैत्यवन्दन प्रारम्भ करने से पहले
भूमि का तीन बार प्रमार्जन करना। ८. आलंबन त्रिक (१) सूत्र (वर्ण) आलंबन : अक्षर पद-सम्पदा व्यवस्थित बोलना। (२) अर्थ-आलंबन
: सूत्रों के अर्थ हृदय में विचारना। (३) प्रतिमा-आलंबन : जिन प्रतिमा अथवा भाव अरिहन्त के स्वरूप का आलंबन
करना। ९. मुद्रा त्रिकः (१) योगमुद्रा
: दोनों हाथों की ऊंगलियों को परस्पर जोड़ना। (२) जिनमुद्रा
: जिनेश्वर की भांति कायोत्सर्ग की मुद्रा । (३) मुक्ताशुक्ति मुद्रा : मोती के शीप के समान आकृति करना । १०. प्रणिधान त्रिक:
: 'जावंति चेइआई'सूत्र के द्वारा चैत्यों की स्तवना । (२) मुनिवन्दन प्रणिधान : 'जावंत केवि साहू' सूत्र के द्वारा मुनि भगवंतों की वन्दना।
(३) प्रभु-प्रार्थना प्रणिधान : 'जय वीयराय' सूत्र के द्वारा प्रभुजी को प्रार्थना करना। (नोट : मन की स्थिरता, वचन की स्थिरता तथा काया की स्थिरता स्वरूप तीन प्रणिधान भी कहलाते हैं।)
स्नान करने की विधि सुगन्धित तेल तथा आमला आदि के चूर्ण को एकत्र कर विधिपूर्वक तेलमर्दन (मालिश) आदि प्रक्रिया कर स्वस्थ बनना। उसके बाद पूर्व दिशा के सामने बैठकर अपने नीचे पित्तल आदि का कठौता (थाल ) रखकरदोनों हाथों को अंजलिबद्ध करस्नान के मन्त्र बोलने चाहिए।
॥ॐ अमले विमले सर्व तीर्थ जले पा पा वा वा अशुचिःशुचीर्भवामि स्वाहा ॥
अंजलि में सर्व तीर्थों का जल है, ऐसा विचार कर ललाट से लेकर पैरों के तलवे तक मैं स्नान करता हू, ऐसा सोचना । यह क्रिया मात्र एक बार करनी चाहिए। उसके बाद थोडे स्वच्छसुगंधित द्रव्यों से मिश्रित निर्मल सचित्त जल से स्नान करना चाहिए।स्नान में प्रयुक्त जलगटरआदि में नहीं जाना चाहिए।स्नान करने के बाद अतिस्वच्छ तौलिये से शरीर पौंछना चाहिए।(मूल विधि के अनुसार स्नान करने के बाद शरीरपौंछने की विधि नहीं है. मात्र पानी गारना होता है।)
स्नान विधि
पूजा के कपड़े पहनने की विधि • दशांगादि धूप से सुवासित शुद्ध रेशम के पूजा के वस्त्र तहोंवाला मुखकोश बांधा जा सके, वैसा होना चाहिए। पहनने चाहिए।
प्रभुजी की भक्ति करने जाते समय वैभव के अनुसार दसों धोती पहनते समय गांठ नहीं बांधनी चाहिए। यह विधि ऊँगलियों में अंगूठियाँ होनी चाहिए । उसमें अनामिका तोकिसी योग्य भाग्यशाली के पास सीख लेनी चाहिए। अलंकृत होनी ही चाहिए। • धोती को आगे तथा पीछे व्यवस्थित रूप से पहनना • वीरवलय-बाजूबंद-नौ सेर सोने का हार, मुकुट आदि अलंकार चाहिए।
पहनने चाहिए। • धोती के ऊपर सोने-चांदी अथवा पित्तल का . स्त्रियों को भी सोलह शृंगार सजकर रूमाल सहित चार वस्त्र कमरबन्ध अवश्य पहनना चाहिए।
पहनने चाहिए। • दुपट्टा के दोनों छोरों में प्रमार्जन हेतु उपयोगी रेशम के • स्त्रियों को आर्य मर्यादा के अनुकूल सुयोग्य वस्त्र पहनने डोरेवाली किनारी अवश्य रखनी चाहिए।
चाहिए । शिर हमेंशा ढंके रहना चाहिए। • दुपट्टा पहनते समय दाहिना कंधा खुला रखना चाहिए। . स्त्रियों के पजा का रुमाल छोटा नहीं बल्कि स्कार्फ के समान
स्त्रियों की भांति दोनों कंधे नहीं ढंकने चाहिए। बड़ा होना चाहिए। • दुपट्टा लम्बाई तथा चौड़ाई में पर्याप्त तथा आठ • पुरुषों को पूजा में सिलाई रहित अखंड, स्वच्छ तथा निर्मल
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