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'पुणरवि कायव्वं'( अर्थ : दूसरी बार सामायिक करने योग्य है।) इस प्रकार) मुहपत्ति मुंह से दो-तीन अंगुल दूर रखकर तब कहें यथाशक्ति' ('अर्थ : शक्ति होगी तो अवश्य करूगा।') 'श्री नवकार मंत्र तथा श्री सामाइय वय-जुत्तो सूत्र' उसके बाद एक खमासमणा देकर खड़े होकर कहें 'इच्छाकारेण बोलें (श्राद्धविधिग्रन्थ के अनुसार खड़े-खड़े दोनों हाथ संदिसह भगवन् ! सामायिक पार्यु?' तब गुरुभगवंत कहें 'आयारो 1 जोड़कर श्री नवकार मंत्र गिनकर उसके बाद पैरों के पंजे न मोत्तव्यो'( अर्थ : सामायिक का आचार छोड़ने योग्य नहीं है।) के सहारे बैठकर पारने का सूत्र बोलने का विधान है। तब कहें तहत्ति !'(अर्थ : आपके वचन प्रमाण हैं।)
पुस्तक आदि की स्थापना की गई हो तो उसके बाद पैरों के पंजे के सहारे बैठकर चरवले के ऊपर दाहिने स्थापनाचार्यजी से सीधा हाथ रखकर एक बार श्री हाथ की हथेली की ( अंगूठा अन्दर रहे, इस प्रकार) मुट्ठी बांधकर नवकार मंत्र बोलकर उत्थापन मुद्रा में उत्थापन करें। उसके तथा बाएं हाथ की हथेली में (बंद किनारेवाला भाग बाहर दिखे, बाद योग्य स्थान पर स्थापनाचार्यजी को रख दें।
सामायिक व्रत के पाच अतिचार
सामायिक में अष्टप्रवचनमाता का पालन १. काया का अयोग्य प्रवर्तन, २. वाणी का अयोग्य १.ईया समिति, २. भाषा समिति, ३. एषणा समिति, ४. आदानउच्चारण, ३. मन का अयोग्य चिंतन ४. अनादर तथा भंडमत्त-निक्खेवणा समिति ५. परिष्ठापनिका समिति, ६. मन गुप्ति, ७ ५.स्मृतिभ्रंश ।(योगशास्त्र प्रकाश-४)
वचन गुप्ति, ८. काय गुप्ति ये पाच समिति, तीन गुप्ति, अष्टप्रवचनमाता सामायिक कब व्यर्थ होता है?
श्रावक को धर्म के रूप में सामायिक-पौषध लिया हो, परन्तु अच्छी तरहसे सामायिक कर के आर्त्तध्यान के वश में हुआ
पालन नहीं किया हो, जो कुछ भी अविधि-आशातना हुई हो, उन सबके श्रावक यदि घरकार्य की चिन्ता करे, तो उसका लिएसचमुच मन-वचन-काया से मिच्छामि दुक्कडं। सामायिक निरर्थक कहलाता है।
(यह अष्टप्रवचनमाता सूत्र सामायिक-पौषध में यदि १०० कदम से (पू.हरिभद्रसूरिजी कृत-श्रावकधर्मविधि प्रकरणम्)
अधिक दूर बाहर जाना हो, काजा (कचरा) विसर्जित करना हो, जसकाय
जीवों की विराधना हुई हो अथवा मल-मूत्र त्याग कर उसे विसर्जित कर सामायिक में आवश्यक मुद्राए वापस लौटते हुए ईरियावहियं करने के बाद बोलना होता है।) १. स्थापना मुद्रा : दाहिने हाथ की हथेली को उलटी सर्पाकार मुद्रा में हृदय के सामने अपनी तरफ रखकर
___३. योग मुद्रा : दाहिने हाथ की तर्जनी (प्रथमा) ऊँगली ऊपर रहे,
तथा दोनों हाथों की ऊँगलियाँ एक दूसरे के अन्दर रहे, इस प्रकार रखकर तथा बाएं हाथ की हथेली में मुहपत्ति (बंद किनारीवाला
कमल की अधखिली कली के समान आकृति बनाकर दोनों हाथों की भाग बाहर दिखे, इस प्रकार) को मुंह से तीन अंगुल दूर रखने से यह (गुरु) स्थापना मुद्रा बनती है।
कुहनी पेट पर स्थापन करने से 'योगमुद्रा' बनता है। (चैत्यवंदन भाष्य) २. उत्थापना मुद्रा : दाहिने हाथ की हथेली को सीधी
४.जिन मुद्रा : खड़ा होते समय दोनों पैरों के पंजों के बीच की दूरी । अपनी ओर करके तथा बाएं हाथ की हथेली में मुंहपत्ति
आगे से चार अंगुल तथा पीछे से चार से कम व तीन से अधिक अंगुल रखने से उत्थापन मुद्रा बनती है।
रखने से जिनमुद्रा बनती है। '"""............................
.....................---------------- सामायिक मोक्ष का परम अंग हैं।
सामायिक का फल (अ) सामायिक शब्द की व्याख्या:
निश्चय को जाननेवाले साधुभगवंत सामायिक रूपी सलाके से १. सामायिक : पाप प्रवृत्ति का त्याग, निष्पाप प्रवृत्ति का एकत्र कर्म तथा जीव (आत्मा) को अलग करता है। सामायिक रूपी आचरण, आर्त्त-रौद्रध्यान का परित्याग, सर्वजीवों के प्रति सूर्य से रागादि अंधकार का नाश करने से योगी पुरुष अपनी आत्मा में समता-संयम-शुभ भावना आदि... (विशेषावश्यक भाष्य ) ही परमात्मा का स्वरूप देखते हैं। जो कोई भी भव्यात्मा मोक्ष में गई २ सामायिक : पाप कार्य से मुक्त तथा दुर्ध्यान से रहित है. जाती है तथा जाएगी. वह सभी सामायिक के ही प्रभाव से। आत्मा का दा घड़ा ( ४८ मानट) क लिए समभाव, माक्ष कोई एक व्यक्ति प्रतिदिन एक लाख खांडी (बीस मन का प्रमाण) साधन के प्रति समान सामर्थ्यवाले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र
सुवर्ण (सोने) का दान करे और कोई एक व्यक्ति बत्तीस दोष रहित का लाभ, सर्वजीवों के प्रति मैत्री भाव रूप लाभ, निंदा
|त्रिकरण शुद्धि सहित एक सामायिक करे, तो भी दान देनेवाला व्यक्ति अथवा प्रशंसा, मान या अपमान, स्वजन या परिजन में
सामायिक करने वाले व्यक्ति के बराबरी का नहीं हो सकता है। एक समानवृत्ति का लाभ, सभी त्रस तथा स्थावर जीवों के ऊपर समान परिणाम का लाभ तथा आत्मस्वभाव में स्थिर होने
सामायिक करनेवाला बानवे करोड़ उनसठ लाख पच्चीस हजार नौ सौ में सहायक ऐसे केवली भगवन्तों के द्वारा कथित यह
पच्चीस तथा तीन अष्टमांश पल्योपम (९२,२५,९२५३/८ पल्योपम) सामायिक है।
प्रमाण देवलोक का आयुष्य बांधता है। सामायिक-पौषध में स्थित 'अप्पा सामाइयं अप्पा सामाइयस्स अट्रो ।' आत्मा जीव का जो काल (समय) व्यतीत होता है, उसे सफल माने, उसके सामायिक है तथा आत्मा ही सामायिक का अर्थ है। अतिरिक्त समय संसार के परिभ्रमण का कारण है। (कलिकालसर्वज्ञ (धर्मसंग्रह ग्रंथ)
श्री हेमचन्द्राचार्यजी कृत योगशास्त्र प्रकाश-४) Jain (Gg i nal
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