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जिन दर्शन विधि
• सुयोग्य वस्त्र पहनकर जिनमंदिर में सिर्फ दर्शन करने जाने वाले भाग्यवानों को विधि मुताबिक क्रमबद्ध द्रव्य पूजा और भाव पूजा करनी चाहिए ।
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• बर्मुडा हाफपेन्ट - नाईटी मेक्सी स्लीवलेस आदि उद्भटअनार्य वस्त्र पहनकर दर्शन करने नहीं जाना चाहिए । • स्कूल बेग-ओफीस बेग-कोस्मेटीक (शृंगार साधन ) पर्स मौजें (Socks), औषध व खाने-पीने की सामग्री लेकर नहीं जाना चाहिए ।
• मोबाईल आदि यांत्रिक साधनो का त्याग करना चाहिए । द्रव्य व भाव पूजा
शायद यह शक्य न हो तो उसकी स्वीच ओफ (बंध) रखनी चाहिए ।
जोगींग आदि अंग कसरत (व्यायाम) से वस्त्र में ज्यादा पसीना हुआ हो, तो वैसी अवस्था में नहीं जाना चाहिए । जूठे मुह व मैले कपडे पहनकर नही जाना चाहिए ।
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परमात्म भक्ति मे उपयोगी सामग्री लेकर जिनमंदिर में दर्शनपूजा करने जाना चाहिए। खाली हाथ नहीं जाना चाहिए । घर से जिन मंदिर दर्शन करके वापस घर ही आना हो, तो चंपल-जूतों का त्याग करना चाहिए । क्रम बद्ध वर्णन
का
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• दूरी से जिनमंदिर की ध्वजा या कोई भी भाग देखते ही, उसके सन्मुख दृष्टि रखकर दो हाथ जोडकर 'नमो जिणाणं' बोलना चाहिए ।
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• मुख व पैरों की शुद्धि करने के पश्चात् ही जिनमंदिर के प्रवेशद्वार में प्रवेश करना चाहिए।
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• जिनमंदिर के परिसर में प्रवेश करते ही सांसारिक चिंता के त्याग स्वरुप 'प्रथम- निसीहि' बोलनी चाहिए । ( निसीहि = निषेध ) । फिर तिलक करके प्रवेश करें। • गर्भगृह के बहार रंग मंडप में खडें रहकर प्रभुजी के दर्शन कर हृदय में स्थापित करें।
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• स्वद्रव्य से पूजा करने की भावना होते हुए भी जिनमंदिर में वह सामग्री लाने में असमर्थ आराधकों को शक्ति अनुसार कुछ नगद रुपये भंडार में भरने के बाद मंदिर की सामग्री का उपयोग करना चाहिए ।
• भाईयों और बहनों को प्रभुजी की बांई ओर खड़े रहकर धूपकाठी / धूपदानी हृदय के नजदीक स्थिर रखकर धूपपूजा करनी चाहिए ।
• भाईयों को दाहिनी तरफ और बहनों को बांई ओर खड़े रहकर फानूस युक्त दीपक को प्रदक्षिणाकार नाभि से उपर और नासिका से नीचे रखकर दीपक पूजा करनी चाहिए ।
• प्रभुजी के दाहिनी ओर से जयणा पालन पूर्वक 'काल अनादि अनंतथी....' दूहा बोलते हुए तीन प्रदक्षिणा देनी चाहिए ।
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• उसके पश्चात् मूलनायक प्रभुजी समक्ष आते ही 'नमो जिणाणं' बोलकर मंदिर संबंधित चिंता के त्याग स्वरूप 'दूसरी निसीहि' बोलनी चाहिए।
• प्रभुजी के दाहिनी ओर भाईयों और बांई ओर बहनों को एक तरफ खडें रहकर भाववाही स्तुतियाँ अन्यों को अन्तरायभूत न हो, वैसे एकी संख्या में बोलनी चाहिए । • स्वद्रव्य से अग्र पूजा करने की भावना वालो को धूप व दीपक प्रगट करना चाहिए।
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भाईयों को दाहिनी तरफ और बहनों बांई ओर खड़े रहकर दर्पण को हृदय की बांई ओर स्थापित कर उसमे प्रभुजी का दर्शन होते ही सेवकभाव से पंखे को ढालना चाहिए।
भाईयों को दाहिनी तरफ और बहनो बांई ओर खड़े रहकर चामर नृत्य करना चाहिए ।
आरती मंगलदीपक या शांतिकलश मंदिर में चलता हो, तो उसमें यथाशक्ति समय का योगदान देना चाहिए।
मध्याह्न काल की पूजा के मुताबिक अक्षत - नैवेध - फल पूजा अनुक्रम से करनी चाहिए ।
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हाथ रुमाल से या सुयोग्य वस्त्र से तीन बार भूमि प्रमार्जना करके द्रव्य - पूजा के त्याग स्वरूप 'तीसरी निसीहि' बोलनी चाहिए ।
ईरियावहियं सहित चैत्यवंदन करके पच्चक्खाण लेकर एक खमासमण देकर 'जिन - भक्ति करते समय मुझसे जो कुछ भी अविधि- आशातना हुइ हो, तो मन-वचन काया से मिच्छा मि दुक्कड' मुठ्ठी लगाकर बोलना चाहिए ।
जिनमंदिर से बाहर निकलते समय प्रभुजी को अपनी पीठ न दिखे, वैसे बाहर निकलते हुए घंट के पास आना चाहिए ।
बाए हाथ को हृदय के मध्यस्थान पर स्थापन कर दाहिने हाथ से तीन बार घंटनाद करना चाहिए।
जिनमंदिर के चबूतरे के पास आकर, वहाँ बैठकर प्रभुजी की भक्ति से उत्पन्न हुए आनंद को बार-बार याद करना और प्रभुजी का अब विरह होगा, ऐसी हृदय द्रावक अपरंपार वेदना का अनुभव करते हुए, उपाश्रय की ओर निर्गमन करना चाहिए । उपाश्रय में पूज्य गुरुभगवंतों को गुरुवंदन करके यथाशक्ति पच्चक्खाण लेना चाहिए ।
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विशेष सूचना : सुबह से दोपहर तक प्रभुजी के दर्शन करने वाले महानुभावों को उपर्युक्त सभी क्रियाएं करनी चाहिए । शाम को या सूर्यास्त के बाद दर्शन करने जाने वाले महानुभावों को केशर तिलक, तीन प्रदक्षिणा, घंटनाद, दर्पण - अक्षत - नैवेध - फल पूजा को छोडकर सभी क्रियाएँ करनी चाहिए ।
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