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अस्तित्व और अहिंसा
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नहीं दिया जा सकता । दुःख के साधन दिए जा सकते हैं किन्तु दुःख नहीं दिया जा सकता। अगर दुःख दिया जा सकता तो महावीर और आचार्य भिक्षु बड़े दुःखी बन जाते । महावीर को कितने दुःख दिए गए, आचार्य भिक्षु के सामने कितनी समस्याएं प्रस्तुत हुईं, किन्तु क्या महावीर कभी दुःखी बने ? आचार्य भिक्षु कभी विचलित हुए ?
अपने हाथों में है दुःखी होना
महावीर को कोई दुःखी नहीं बना सका इसीलिए उन्होंने कहापत्तेयं दुःखं दुःख अपना-अपना होता है । हम बहुत बार दूसरों से दुःखी बन जाते हैं । हम इस सचाई को भूल जाते हैं - दूसरा दुःख नहीं दे सकता । दुःखी होना नितान्त हमारे हाथ में है । अगर हम न चाहें तो हमें कोई दुःखी नहीं बना सकता और हम चाहें तो भी किसी को दुःखी नहीं बना सकते, सुखी नहीं बना सकते । सुख और दुःख स्वगत होता है, अपना अपना होता है । जिसमें जो क्षमता है, जिसे जो मिला है, वह उसका विकास करे, सुख को उपलब्ध करे |
हम इस आत्म-कर्तृत्व के सिद्धांत का गहराई से अध्ययन करें । अध्यात्म-विज्ञान के इस सूत्र को समाजविज्ञान और मनोविज्ञान ने भी किसी अर्थ में अपनाया है ।
सामाजिक हैं साधन
सुख-दुःख नितांत अपना और वैयक्तिक होता है । इसका अर्थ है -सुख दुःख का विनिमय नहीं किया जा सकता, उसे लिया या दिया नहीं जा सकता । पुत्र धन कमाता है तो पिता को मिल जाता है। पिता धन कमाता है तो पुत्र को मिल जाता है। एक व्यक्ति कमाता है और वह परिवार के दस सदस्यों को मिल जाता है। धन वैयक्तिक नहीं, सामाजिक है। धन को वैयक्तिक मानना मूर्खता है और सुख को सामाजिक मानना मूर्खता है । सुखदुःख का जो साधन है, वह सामाजिक है ।
हम इस अवधारणा को स्पष्ट करें - सुख-दुःख के साधन सामाजिक हैं किन्तु सुख-दुःख के संवेदन वैयक्तिक हैं । इसलिए न तो किसी में त्राण का आरोपण करना चाहिए और न ही किसी को अन्तिम शरण मानना चाहिए । व्यक्ति की अपनी आत्मा, व्यक्ति का अपना आचरण ही त्राण और शरण देने में समर्थ है, सुख और दुःख का कारण है । हम इस सचाई को समझें और ऐसा कोई आचरण न करें, जिससे दुःख बढ़े, सुख घटे । यह जागरूकता ही दुःख से मुक्ति दिला सकती है, सुख का मार्ग प्रशस्त कर सकती है ।
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