Book Title: Astittva aur Ahimsa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 215
________________ जब निष्क्रमण अपना अर्थ खो देता है १६७ बाधा है । व्यक्ति सोचता रहता है - यह सुख सुविधामय जीवन चलता रहे, कभी दुःख न आ जाए, मौत न आ जाए । 'आदमी मरणधर्मा है' वह इस सचाई को जानते हुए भी नहीं जानता, अनजान बना रहता है । दो ग्रंथियां जो जन्म लेता है, वह मरता है, किन्तु जितना डर मरने का है, उतना डर किसी का नहीं है । मृत्यु के अविचल नियम को सब जानते हैं किन्तु जितना मोह जीवन का है और जितना भय मौत का है उतना किसी दूसरी चीज का है या नहीं, यह एक प्रश्न है । जीवन की आशंसा की ग्रन्थि और मृत्यु के भय की ग्रन्थि - ये दोनों भयंकर ग्रंथियां हैं, जो हमारे पीछे लगी हुई हैं । ये दोनों ग्रन्थियां व्यक्ति को सताती रहती हैं किन्तु आदमी इन्हें छोड़ना नहीं चाहता। जीवन का छूटना मनुष्य की विवशता है, इच्छा नहीं । यदि दोनों ग्रन्थियों से मुक्ति हो जाए तो जीवन में सफलता ही सफलता प्राप्त होती है, व्यक्ति को अपने लक्ष्य से कोई च्युत नहीं कर सकता । समाधान है अनुप्रेक्षा प्रश्न है - इन सब स्थितियों से कैसे निपटा जाए इन सबका एक समाधान है अनुप्रेक्षा । श्रद्धा को निरन्तर एक जैसा बनाए रखने के लिए, धृति को कायम रखने के लिए, पराक्रम को जागृत रखने के लिए, जिजीविषा और मृत्यु-भय से छुटकारा पाने के लिए जरूरत है अनुप्रेक्षा की । राजा भरत भी चक्रवर्ती था और राजा ब्रह्मदत्त भी चक्रवर्ती था। जैन साहित्य को पढ़ने वाला व्यक्ति जानता है—भरत का जीवन कैसा रहा और ब्रह्मदत्त का जीवन कैसा रहा ? भरत और ब्रह्मदत्त के जीवन में जो अंतर रहा है, उसका एक कारण है-अनुप्रेक्षा । यह राजपरंपरा रही है - जब राजा जागृत होते, तब मंगल पाठक मंगल ध्वनि करते । जब शंख बजाया जाता, तब राजा जागृत होते । चक्रवर्ती भरत ने मंगल पाठकों को यह निर्देश दिया था -- जब मंगल ध्वनि की जाए तब इस सूत्र का उच्चारण किया जाएवर्धते भयम् भय बढ़ रहा है । भरत चक्रवर्ती इस प्रयोग से अभय बन गए, अनासक्त बन गए । वे विशाल साम्राज्य के अधिनायक थे किन्तु भीतर में अनासक्ति प्रबल थी और वह अनासक्ति इतनी बढ़ी कि वे महल में बैठे-बैठे केवली हो गए । अमोघ सूत्र यह अनुप्रेक्षा का प्रयोग जीवन को बदलने का शक्तिशाली प्रयोग है । यदि जीवन में यह प्रयोग आ जाए तो विचलन की भावना उत्पन्न ही नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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