Book Title: Astittva aur Ahimsa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 229
________________ तब मौन हो जाएं प्रवृत्ति और निवृत्ति का एक द्वन्द्व है । केवल प्रवृत्ति करना खतरनाक है । केवल निवृत्ति संभव नहीं है । इसलिए प्रवृत्ति और निवृत्ति -- दोनों का यथावकाश एवं यथासमय उपयोग करना हमारी विवेक चेतना का महत्त्वपूर्ण प्रयोग है । कब चलें और कब विश्राम करें ? कब सोएं और कब जागें ? Maa बोलें और कब मौन रहें ? इन सबका विवेक होना चाहिए । निरन्तर बोलना अच्छा नहीं है और निरन्तर मौन रहना भी संभव नहीं है । उचित समय पर बोलना और ठीक समय पर मौन हो जाना ही श्रेष्ठ माना जाता है । विवेक को कसौटी महत्त्वपूर्ण प्रश्न है - मौन कहां करें ? जहां कोई सुनने वाला नहीं है, वहां मौन बहुत मीठी लगती है । मौन बहुत आवश्यक भी है । यदि आदमी समय पर मौन करना न जाने तो विग्रह का प्रसंग प्रस्तुत होता चला जाए । मौन कहां किया जाए, यह प्रश्न मनुष्य के विवेक की कसौटी कहा जाता है । भगवान् महावीर ने कहा - मुनि लोगों को समझाइए बातचीत करे, उपदेश दे और उसे यह अनुभव हो - अभी समझाने का अवसर नहीं है, जिसे समझा रहा हूं, वह समझ जाए, ऐसा नहीं है, या मेरी समझाने की शक्ति नहीं है तो वह मौन हो जाए। मुनि स्वयं की शक्ति और सामने वाले व्यक्ति की स्थिति का आकलन कर वाणी के प्रयोग या अप्रयोग का विवेक करे । एक मुनि के सामने ऐसी परिषद् है, जो आग्रह से भरी हुई है, आवेश से भरी हुई है । उस स्थिति में उपदेश दिया जाए तो शायद वह सांप को दूध पिलाने वाली बात बन सकती है । उस समय सबसे अच्छा उपाय है मौन | यदि इस स्थिति में आदमी सुनता चला जाए, केवल सुनता चला जाए तो विष अपने आप धुल जाता है, सारी स्थिति सम्यक् बन जाती है । शान्ति का कारण है मौन वह व्यक्ति महान् होता है, जो आवेश के वातावरण में भी मौन रहना सीख लेता है । इतिहास में ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं, जिनसे यह सचाई स्पष्ट होती है । तेरापंथ के इतिहास में भी ऐसी अनेक घटनाएं उपलब्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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