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आचार-शास्त्र
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह-ये सब व्रत सामाजिक संदर्भ में हैं। यदि व्यक्ति समाज से जुड़ा नहीं होता तो कोरा अध्यात्म होता, कोरी चेतना होती, राग और द्वेष का विलय होता, केवल आत्मानुभूति होती। व्यक्ति समाज के साथ जीता है इसलिए बहुत सारे नियम बने हुए हैं और इन सबका संबंध समाज से ही है।
आचारांग सूत्र में आचार का प्रतिपादन किया गया है। जहां आचार का प्रश्न है वहां अध्यात्म की बात भी आएगी, धर्म और नैतिकता की बात भी आएगी। सुकरात ने एक प्रश्न उपस्थित किया----नीतिशास्त्र का उद्देश्य क्या है ? इस उद्देश्य की मीमांसा में सुकरात ने कहा-नीतिशास्त्र का उद्देश्य है---परम शुभ अथवा अंतिम शुभ को प्राप्त करना। परम शुभ वह होता है, जो अपने आपमें वांछनीय है, जो किसी दूसरे की अपेक्षा से नहीं है । जो साधन नहीं है किन्तु स्वतः साध्य है, वह है परम शुभ । आचार-शास्त्र का उद्देश्य
जैन दृष्टि से आचार-शास्त्र का उद्देश्य है.---आत्मा को पाना ।
परमश्रेयसः प्राप्तिः, उद्देश्यं तस्य सम्मतम् ।
आत्मैव परमं श्रेयः, आचारेण स लभ्यते ॥
आत्मा ही हमारे लिए परम शुभ है। वह आचार से प्राप्त होती है। आचार शास्त्र का उद्देश्य है---आत्मा को उपलब्ध होना, आत्मा में होना, आत्मा को प्राप्त करना, अपने स्वरूप में चले जाना।
आत्मा स्वतः साध्य है इसीलिए आचारांग के प्रारम्भ में आत्मा की चर्चा की गई है। भगवान महावीर ने कहा---बहत सारे लोग नहीं जानते कि आत्मा है । जब तक हम आत्मा को नहीं जानेंगे, हमारे आचार का कोई महत्त्व नहीं होगा। एक आत्मवादी का आचार और एक अनात्मवादी का आचार बिलकुल भिन्न होगा । जापान में ऐसी प्रथा रही है--जब कोई व्यक्ति बूढ़ा हो जाता तो स्वयं उसका बेटा उसे जंगल में छोड़ आता। क्योंकि वह परिवार एवं समाज के लिए उपयोगी नहीं रहता । जहां नैतिकता समाजव्यवस्था से जुड़ी रहेगी वहां उसका आधार होगा उपयोगिता किन्तु जहां नैतिकता आत्मा से जड़ी होगी वहां उसका आधार उपयोगिता नहीं होगा, उसका अर्थ बदल जाएगा। परम शुभ है आचार
__ महावीर वाणी के आधार पर आचार को परिभाषित करें तो निष्कर्ष होगा--निःशस्त्रीकरण का नाम है आचार। शस्त्र-परिज्ञा-शस्त्र न बनना आचार है। प्रश्न होता है—क्या तलवार, बम, बन्दुक आदि शस्त्र हैं ? ये दो नंबर के शस्त्र हैं। पहले शस्त्र बनता है हमारे भाव या
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