Book Title: Arshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti
View full book text
________________ (7 ) दिया। साथ ही भागवत-पुराण में दिये गये अवतारों के वर्णन में इनका. जीवन-चरित्र भी जोड़ दिया। इस प्रकार बलपूर्वक जैनतीर्थङ्कर ऋषभ२, ऋषभावतार के रूप में अजैन विभाग में मान्य, वन्दनीय एवं पूजनीय बन गये। भाषान्तर के सम्बन्ध में भारतीय संस्कृति की आत्मा प्राकृत भाषा में जोवित है उसी प्रकार आर्यकुल में मानी जाने वाली संस्कृतभाषा में भी जी रही है। यह भाषा हजारों वर्षों से इस देश में सर्वत्र फैली हुई है क्योंकि इस भाषा को नियमबद्ध बनाया गया है यही कारण है कि इसके लिये देश काल की सीमाएँ बाधक नहीं हुई। जबकि दूसरी लोकभाषा-प्राकृत भाषा के लिए 'बारह कोस पर बोली बदल जाती है। ऐसी स्थिति थी। व्यवहार की भाषा व्याकरणशास्त्र से सुसंस्कृत अर्थात् नियमबद्ध होने से संस्कृतभाषा उत्पन्न हुई, इससे इस देश का कोई भी व्यक्ति इसे सीख सके ऐसी परिस्थिति निर्मित हुई। इसीलिए इस भाषा में समस्त दर्शनकारों ने अपने साहित्य की विपुल रचनाएँ की हैं। भारतीय संस्कृति की आत्मा को एकता के सूत्र में, बांधने तथा विविधता में एकता का अनुभव कराने में इस भाषा का योग बहुत अच्छा रहा है। यद्यपि प्रत्येक धर्मशास्त्रकारों ने अपने मूलभूत शास्त्रों के लिए स्वतन्त्र भाषाएँ अपनाई हैं, जैसे कि जैनों ने प्राकृत, वैदिकों ने संस्कृत और बौद्धों ने पाली / इतना होते हुए भी धर्मशास्त्रों को समझाने के लिए जिस भाषा का मुक्त रूप से उपयोग हुआ है वह अधिकांशया संस्कृतभाषा का ही हुआ है। इसे समझाने के लिए निर्मित संस्कृत रचनाएँ सर्वत्र 'टीका' शब्द से पहचानी जाती हैं। इस प्रकार भारतीय संस्कृत की आत्मा भाषा में शब्द-बद्ध होकर ओतप्रोत हो गई / ऐसी व्यापक सर्वत्र समान समादर की पात्र बनी हुई भाषा के प्रति आज शनिदशा लगी हुई है। देवभाषा के नाम से ख्यातिप्राप्त इस भाषा के 1. देखो, भागवतपुराण / 2. ऋषभदेवावतार का चरित्र जैनों से कुछ भिन्न लगता है, जबकि अन्त में कुछ विचित्र विकृतियां देखने में आती हैं।