Book Title: Arshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti
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________________ .. ( 17.) इस प्रकार चक्रि-पद की अभिलाषा से खिन्न महाराजा को देखकर मन्त्री उन्हें धैर्य बँधाते हए कहता है कि-'पापका छोटा भाई वह बलवान् 'बाहुबली' आपकी आज्ञा को नहीं मानता है। वह अपनी चण्ड भुजाओं से शत्रुओं को अस्त करके 'विश्ववीर' बना हुआ है / उसकी मुष्टि वज्र के समान कठोर है। वह नीति, धर्म, वाक्कौशल, युद्ध क्रीडा आदि में निपुण है / उसके पास अपूर्व लब्धियां हैं / अतः जब तक उसे आप परास्त नहीं करेंगे तब तक 'चक्रिपद' की रक्षा असम्भव है और साथ ही यह भी कहता है कि-"पहल आप उसक पास दूत भेजिए। यदि वह आपकी प्राज्ञा मान ले तो आपकी इष्टसिद्धि हो जाएगी और यदि न माने तो उसे युद्ध में दण्डित कीजिए।" मन्त्री के इन वाक्यों से भरत महाराजा क्रुद्ध हो जाते हैं और एक ओर भ्रातमोह तथा दूसरी ओर चक्रिपद की अभिलाषा के कारण सन्देह-दोला में पड़े सोचते हैं कि क्या करूं ? यहीं बड़े विस्तार से विवेकपूर्ण विचार, तर्क, वितर्क, युक्ति प्रादि प्रस्तुत करते हुए श्रीमद् उपाध्यायजी ने उचितानुचित का विवेचन किया है महाराजा के मुख से तृष्णा की निन्दा करवाई है और ऐमी स्थिति दिखला कर पुन: मन्त्री के द्वारा कहलाया है कि"हे महाराज ! राजा के लिए उसके प्राणों से भी अधिक मूल्यवान् उसका तेज है तथा उसकी रक्षा के लिए अविनीतों को विनीत बनाना अत्यावश्यक है। एतदर्थ किये गये प्रयासों से राजा का यश बढ़ता है / अत: पाप राजनीति का आश्रय लेकर अपने पौरुष को स्फूरित करें।" सचिव के ऐसे वाक्यों से महाराजा भरत का क्रोध भड़क उठता है और वे पुन: अपने भाइयों के पास दूत भेजते हैं / चतुर्थ सर्ग-इस सर्ग में कवि ने सर्वप्रथम 'सुवेग' नामक दूत के प्रस्थान के समय होने वाले अपशकुनों का वर्णन किया है तथा