Book Title: Arshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti
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________________ ( 16 ) साहित्य-समीक्षा उपलब्ध काव्यांश में वर्ण्य विषय की व्यापकता के अनुसार ही प्रथम सर्ग में 1 से 130 तक वंशस्थवृत्त का प्रयोग हुआ है तदनन्तर 3 वसन्ततिलका, 1 पुष्पिताग्रा, 2 स्वागता और हरिणी छन्द का प्रयोग करके सर्ग पूर्ण किया है। द्वितीय सर्ग में 1 से 132 तक वियोगिनी वृत्त का प्रयोग है तथा अन्त में 4 शार्दूलविक्रीडित छन्द निबद्ध हैं। ततीय सर्ग में 1 से 117 तक उपजाति वत्त का प्रयोग है तथा अन्त में 4 मालिनी वृत्तों का प्रयोग करके सर्ग पूर्ण किया गया है। चतुर्थ सर्ग के 1-66 पद्य स्वागता वृत्त में निबद्ध है। इस प्रकार छन्दों के चयन में पूर्व महाकवियों की परिपाटी का समन्वय करते हए श्रीमदयशोविजयजी गणि ने भाव और भाषा का तादात्म्य स्थापित करने में पूर्ण सफलता प्राप्त की है। वीर एवं शान्तरस के साथ ही यहाँ 'प्रोज' प्रसाद एवं माधुर्य गुणों में माधर्य गुण को अधिक आश्रय मिला है तो रोति की दष्टि से गौडी (समासभयिष्ठ पदावली में) तथा स्फूट पदों के प्रयोग में भी अर्थगाम्भीर्य श्लेष आदि की विशेष स्थिति के कारण पाञ्चाली रीति अधिक प्रयुक्त हुई है। ... अलंकारों में वर्णमैत्रीगत शब्दालंकारों का प्रयोग साहजिक होते हुए भी द्वितीय-चतुर्थ पादान्तानुप्रास (1-38, 3-83)' वृत्त्यनुप्रास (1-48) और यमक के विरल प्रयोगों से मन को मोह लेता है। प्रर्थालंकारों में श्लेष का प्रयोग सर्वाधिक है जिसके कारण अनेक पद्य दो-दो अर्थों को व्यक्त करते हैं तथा उन्हीं के आधार पर ध्वनि के मुख्य १-अलङ्कार से वस्तु, २-वस्तु से अलकार, ३-वस्तु से वस्तु, ४-अलंकार से अलंकार तथा ५-भावध्वनिरूप पांचों भेदों का बहुधा समावेश परिलक्षित होता है।