Book Title: Arshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti
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________________ ( 30 ) प्रथम प्रकाश में प्राप्त होते हैं। तीसरा मन्त्र 'नम् त्थ णं' स्तोत्र के संस्कृत अनुवाद जैसा है और इसी के साथ चौथे मन्त्र में तीर्थङ्कर के लिए प्रयुक्त विशेषण 'योगशास्त्र' (प्र.१, श्लो०२) की स्वोपज्ञ व्याख्या पत्र २,अ.३, श्लो. 16-35) में दिखाई देते हैं / ११वां मन्त्र योगशास्त्र के प्रकाश 8, श्लोक 46 की स्वोपज्ञ व्याख्या में प्रायः अक्षरशः 'मिलता है। इससे यह ज्ञात होता है कि- इस स्तोत्र का उपयोग श्रीहेमचन्द्राचार्य ने पर्याप्त रूप में किया है / इसमें 16 नाम परमतनिरसन के सूचक भी हैं। 11 वे मन्त्र के अन्त में 5 पद्य हैं और तदनन्तर 'वर्धमान जिनमन्त्र' के रूप में इसका उल्लेख हुआ है / 'जिनरत्नकोष' (वि. 1, प. 366) के अनुसार इस स्तोत्र की श्रीप्रद्युम्नसूरि ने 'वृत्ति' भी बनाई है जिसकी पाण्डुलिपि सूरत के एक भण्डार में है। इसका सम्पादन श्री हीरालाल रसिकदास कापडिया ने किया है तथा 'भक्तामर-स्तोत्रत्रय' की प्रावत्ति (पृ.२४२२४५) में पाठान्तर सहित इसका मुद्रण हुआ है / यही कृति 'अनेकान्त' (वर्ष 1, किरण 8-10) में वि० सं० 1986 में भी छपा है। वहां इसका नाम 'सिद्धिश्रेयः समुदय' दिया है। 2. जिनसहस्रनाम-स्तोत्र- जिनसेनाचार्य (नौवीं शती) - यह दिगम्बर जैनाचार्य जिनसेन के 'प्रादिपुराण' के 25 वें पर्व के श्लोक सं० 100 से 217 तक के अंश का संकलन है। इसका प्रारम्भ 'श्रीमान स्वयम्भव षभः' से और पूर्ति 'धर्मसाम्राज्यनायकः' से होती है। इनके पश्चात अन्य नौ पद्यों में स्तोत्र की महिमा आदि 'का वर्णन है / दस शतकों में यह स्तोत्र पूर्ण हुआ है। इसका प्रकाशन 'जैन ग्रन्थरत्न कार्यालय' से ई० सं० 1626 मे तथा मूलचन्द किसनदास कापड़िया की ओर से ई० सं० 1652 में सूरत से हुआ