Book Title: Arshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti
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________________ [प्रथम कृति] पार्षभीय-चरित-महाकाव्य प्रस्तुत 'पार्षभीय-चरित-महाकाव्य' पूज्य उपाध्यायजी की प्रौढः कृति है। दुर्भाग्य से इस महाकाव्य का पूरा अंश प्राप्त नहीं हुआ है। केवल चौथे सग के 66 वें पद्य तक ही यह काव्य उपलब्ध है। यह भी कहना कठिन है कि श्री उपाध्याय जी महाराज ने इस महाकाव्य की रचना यहीं तक को थी अथवा आगे भी इसका निर्माण हुआ था ? साधजीवन की व्यस्तता एवं अनेकविध ग्रन्थ-प्रणयन की प्रवत्ति के कारण प्रायः देखा गया है कि रचनाकार अपने मन के उच्छल विचारों को शब्ददेह देने के लिए व्यग्र तो रहता है किन्तु उन्हें परिस्थितिवश कभी-कभी समग्ररूप नहीं भी दे पाता है। इसमें कुछ अंशों में दैव भी कारण बनता है। सम्भव है ऐसे ही किसी कारणविशेष से यह महाकाव्यं भी पूर्ण नहीं हो पाया हो ? प्रस्तुत महाकाव्य और उसकी कथावस्तु __महाकाव्य के लक्षण-विवेचन से ज्ञात होता है कि 'किसी महाकाव्य में जीवन के सर्वाङ्ग का चित्रण करते हुए नायक के उदात्त आदर्शों का उपस्थापन होना चाहिये' तदनुसार ही यहां आद्य तीर्थंकर श्रीऋषभदेव के चरित्र को कथावस्तु का आधार बनाया है। अनेक प्रौढकाव्यों के समान ही इस काव्य में भी उत्तम ध्वनिकाव्य के तत्त्व समाविष्ट हैं, साथ ही शिलप्ट-पद-प्रयोग, गूढशास्त्रीय तत्त्वभित वाक्यविन्यास, अलङ्कार-मसण पदावली एवं कल्पना-प्रचुर रससिक्त वर्ण्यवत्तान्तों के कारण यह महाकाव्यों की माला में सुमेरु के समान श्लाघनीय बन गया है। इसमें वर्णित कथा का सर्गानुसारी परिचय इस प्रकार है