Book Title: Arshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti
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________________ ( 14 ) प्रथम-सर्ग-इस सर्ग में श्रीनाभिनन्दन के स्मरणरूप आशीर्वादात्मक मङ्गल से प्रारम्भ करके उनकी महिमा का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए- 'वही एक देव है, जिसकी भिन्न-भिन्न नामों से उपासना की जाती है। जिसके आगम-समुद्र का जल प्राप्त करके अन्य लोग बादलों के समान गरजते हैं / उस जल की वृष्टि से ही विचित्र धान्य की सष्टि होती है और उनके द्वारा प्रवर्तित 'धर्मविधि' ही सर्वत्र प्रवत्त है, इत्यादि कहा है। इसके पश्चात् आद्यतीर्थङ्कर के रूप में प्रजाहित के लिए उनका उत्पन्न होना बतलाया है और विनीता नगरी के शासक के रूप में उनकी शासन-सुव्यवस्था एवं कालान्तर में संसार त्याग की भावना से अपने सौ पुत्रों में राज्य का विभाजन करके चतुष्टिलोचपूर्वक दीक्षा लेकर चीत राग स्थिति में तप में रत होने का वर्णन किया है। . तपस्या के प्रसंग से प्रभु का वनभ्रमण और वहां की वन्यश्री का सौन्दर्य-निरूपण कवि ने अपने आन्तरिक प्रकृत्यनुराग की साक्षी में बडा ही मनोरम दिया है। भगवान ऋषभदेव के तपस्वीजीवन का चित्रण करते हुए उनकी क्षुधा-तृषा सहिष्णुता, परीषहसहन आदि का वर्णन करके 'गजपुर' स्थित सोमयश के यहां इक्षरस से पारणा करने का भी अच्छा चित्रण किया है। वहीं प्रभ का उपदेश, श्रेयाँस के मस्तक पर पूष्पवष्टि और घर में साढ़े तेरह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं की वर्षा होती है और तदनन्त र प्रभु अन्यत्र विहार के लिये निकल जाते हैं। इस प्रकार दीक्षा के दिन से एक हजार शरद के बीत जाने पर भगवान को कैवल्य प्राप्ति तथा समस्त विश्व में उनके यश का विस्तार आदि वर्णन करके यह पूर्ग पूर्ण किया है / द्वितीय सर्ग-इस सर्ग में भरत महाराजा के द्वारा भारतवर्ष में शासन करने का वर्णन करते हुए उनके द्वारा दिए गये दान, उनके अतुल पराक्रम, सैन्य-सम्पत्ति और शारीरिक सौन्दर्य प्रादि का