Book Title: Arshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti
View full book text
________________ ( 12 ) उनमें 1. अनेकार्थी काव्य, 2. यमकाद्यलंकारगर्भ काव्य, 3. चित्रालंकारमय काव्यादि आकार में लघु होने पर भी महत्त्वपूर्ण बने हैं तो 4. समस्यापूर्तिरूप और 5. अनुकरणरूप काव्यों की भी इसमें न्यनता नहीं रही और आज भी इस परम्परा का यथाक्रम निर्वाह हो रहा है, यह पूर्णसन्तोष का विषय है / सामूहिक निष्कर्ष . इस संक्षिप्त पर्या लोचन से यह कहना असङ्गत नहीं होगा कि भारतीय संस्कृत-साहित्य को श्रीवृद्धि में जैन सम्प्रदाय का महाकाव्यो की दृष्टि से अत्यन्त उपादेय योगदान रहा है। जैसे-जैसे काव्यसृष्टि की प्रकियात्रों में परिष्कार होता गया और जनमानस का झकाव साहित्यिक सौष्ठव की पार बढ़ता गया उसी क्रम से सर्जनात्मक परिवेष भी अपनी परिधि को सजाने-संवारने में पीछे नहीं रहा। __ अन्तरङ्ग की भावोमियों का निश्छल एवं निरर्गल उच्छलन कवित्व का निखरा हुआ रूप प्रत्येक काव्यकार की कृति में न्यूनाधिक रूप में परिलक्षित होता ही है, किन्तु परीक्षकों की पैनी पहँच उसे और भी प्रास्वाद्य बनाने में सहायक होती है। अत: इस पोर तटस्थतापूर्वक परिशीलन की अपेक्षा निरन्तर आदरणीय है। ऐसी हो पूर्ववर्ती परम्परा को प्राप्त करके महान् नैयायिक होते हुए भी परम श्रद्धेय 'श्रीयशोविजयजी उपाध्याय' महाराज ने अपनी अलौकिक प्रतिभा का सदुपयोग करते हए दो महाकाव्यों तथा अनेक स्तोत्रकाव्यों की रचना की थी जिनमें से दोनों महाकाव्यों के उपलब्धांश जो इस ग्रन्थ-संग्रह में प्रकाशित किये गये हैं उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -