Book Title: Arshbhiyacharit Vijayollas tatha Siddhasahasra Namkosh
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharati Jain Prakashan Samiti
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________________ 14 साधुओं के साथ बैठता, साधु महाराज उसे प्रेम से बुलाते तथा दीक्षा के सम्बन्ध में बालक को ज्ञान हो उस पद्धति से प्रेरणा देते / रत्नपरीक्षक जौहरी जिस प्रकार हीरे को परखता है तथा उसके मूल्य का अनुमान निकालता है, उसी के अनुसार गुरुवर्य नयवियजी ने भी जसवन्त के तेजस्वी मुख, विनय तथा विवेक से पूर्ण व्यवहार, बुद्धिमत्ता, चतुरता, धर्मानुरागिता आदि गुणों को देखकर उसमें भविष्य के एक महान् नररत्न की झाँकी पाई और जसवन्त के भविष्य का अङ्कन कर लिया। ___ गुरुदेव श्री नयविजय जी महाराज ने स्थानीय जैन श्रीसंघ की उपस्थिति में बालक जसवन्त को जैन-शासन के चरणों में समर्पित करने अर्थात् दीक्षा देने की मांग की। जैनशासन को ही सर्वस्व माननेवाली माता ने सोचा कि 'यदि मेरा पुत्र घर में रहेगा तो अधिक से अधिक वह धनाढय बनेगा, देशविदेश में प्रख्यात होगा या कुटुम्ब का भौतिक हित करेगा।' गुरुदेव ने जो कहा है उस पर विचार करती हूं तो मुझे लगता है कि 'मेरा पुत्र घर में रहेगा तो सामान्य दीपक के समान रहकर घर को प्रकाशित करेगा किन्तु यदि त्यागी होकर ज्ञानी बन गया तो सूर्य के समान हजारों घरों को प्रकाशित करेगा, हजारों आत्माओं को प्रात्मकल्याण का मार्ग बताएगा। अत: यदि एक घर की अपेक्षा अनेक घरों को मेरा पुत्र प्रकाशित करे, तो इससे बढ़कर मुझे और क्या प्रिय हो सकता है ? मैं कैसी बड़भागी होऊँगी? मेरी कुक्षी रत्नकुक्षी हो जाएगी।' ऐसे विचारों से माता के हृदय में हर्ष और प्रानन्द का ज्वार उठा, जनशासन को अपनाई हुई माता ने उत्साहपूर्वक गुरु और संघ की आज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने अतिप्रिय कुमार को एक शुभ चौघड़िये में समस्त जैन श्रीसंघ की मंगल उपस्थिति में प्रसन्नतापूर्वक गुरु श्रीनयविजयजी को समर्पित कर दिया। यह भी एक धन्य क्षण था। इस प्रकार जैन-शासन के भविष्य में होने वाले जयजयकार का बीजारोपण हुआ / 1. 'पत्तनासन्नवत्ति-'कुणगिरि'-ग्रामतः समेतानां श्रीनयविजय-गुरुवर्याणां बभूव परिचय' इति / 'जम्बूस्वामी रास उद्धरण, भूमिका—जैनस्तोत्रतसन्दोह. भाग प्रथम /