Book Title: Arhat Vachan 2003 10
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 9
________________ सदृश व्यति व को पाकर प्राचार्य पद ही गौरवान्वित हआ है। गुरु भक्त एवं तीर्थ भक्त - आप परम मुनिभक्त एवं तीर्थ भक्त हैं। संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागरजी, राष्ट्रसंत आचार्य श्री विद्यानन्दजी, चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी की पट्ट परम्परा के आचार्य श्री वर्द्धमानसागरजी एवं आचार्यश्री अभिनन्दनसागरजी , मर्यादा पुरुषोत्तम आचार्य श्री भरतसागरजी, गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी, गणिनी आर्यिका श्री सुपार्श्वमती माताजी आदि समस्त गुरूओं के प्रति आपकी अनन्य श्रद्धा एवं भक्ति है। स्वयं श्रावकों के मूलगुणों का पालन करते हुए आपने श्रमण संस्था में पनपने वाले शिथिलाचारों पर भी आवश्यकतानुसार अपनी लेखनी चलाई तथा इस महान एवं पूज्य संस्था में कुरीतियों को पनपने से रोका। वास्तव में यह उन सदृश निर्भीक, आगमनिष्ठ, गुरुभक्त विद्वान के लिये ही शक्य है। वे विवेकवान, गुरुभक्त सुश्रावक है। तीर्थकरों की जन्मभूमियों, निर्वाणभूमियों के संरक्षण, संवर्द्धन एवं विकास में भी उन्होंने अपनी शक्तियों का सार्थक उपयोग किया है। मित्रों! संस्कृति संरक्षण के इस पुनीत यज्ञ में दी गई उनकी आहुति कभी भी व्यर्थ नहीं जायेगी, ऐसा हमारा विश्वास है एवं भावी पीढ़ी उनके इस निस्पृह योगदान हेतु सदैव कृतज्ञ रहेगी। फिरोजाबाद की जैन मेला भूमि के आन्दोलन का प्रश्न हो अथवा एकान्तवादियों की बेबुनियाद व्याख्याओं का जवाब देने का अवसर प्राचार्य जी सदैव अग्रिम पंक्ति में डटे रहे। उन सदृश समर्पित विद्वान श्रावकों के संघर्ष से ही श्रमण संस्कृति की धारा आज अविरल रूप में प्रवाहित हो रही है एवं भविष्य में होती रहेगी। 1987 में कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ की स्थापना के बाद प्रारंभ के 4-5 वर्षों तक तो इसकी उपेक्षा हुई क्योंकि लोगों ने सोचा कि अन्य अनेक श्रेष्ठियों के समान श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल जी ने भी इसकी घोषणा भर की है। किन्तु जब काका साहब श्री देवकुमारसिंहजी कासलीवाल के सतत संरक्षण, वैयक्तिक अभिरूचि एवं सुविचारित रीति - नीति के अन्तर्गत योजनाबद्ध ढंग से कार्य करने एवं कराने के कारण संस्था चल निकली एवं इसकी खुशबू फैलने लगी तो परम्परानुसार अनेक विघ्नसंतोषी जीवों ने संस्था पर प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण करने के षडयंत्र रचने शुरू कर दिये। ऐसे में वैयक्तिक एवं पारिवारिक प्रतिकूलताओं की परवाह किये बगैर संस्था को सम्यक मार्गदर्शन, सतत सहयोग एवं समर्थन देकर प्राचार्यजी ने कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ की अविस्मरणीय सेवा की है। पुरस्कार योजनाओं के क्रियान्वयन एवं अर्हत् वचन में प्रकाशनार्थ प्राप्त लेखों की समीक्षा में आपका सहयोग तो मैं कभी नहीं भुला सकता। अभिनन्दन समारोह के अवसर पर कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करता है। प्राचार्यजी के बहआयामी व्यक्तित्व का चित्रण इन चंद पंक्तियों में संभव नहीं है। यहाँ तो मैंने मात्र एक झलक प्रस्तुत की है। 'समय के शिलालेख' शीर्षक अपनी सद्य: प्रकाशित कृति के प्रारम्भ में अपनी भावनाएँ व्यक्त करते हुए आपने जो अन्तिम दो लाइन लिखी हैं, वे उनके चिन्तन को सटीक रूप से व्यक्त करती हैं। काश! हम उनकी पीड़ा को आत्मसात कर पाते।। कर्मक्षेत्र में उतर रहा हूँ, लेकर यह अभिलाषा। समझ सके संगठन शक्ति की, जनता अब परिभाषा ।। आइये। राष्ट्रीय अभिनन्दन समारोह (कोलकाता - 25 दिसम्बर 03) के अवसर पर हम सब उनके स्वस्थ, सुदीर्घ, यशस्वी जीवन की मंगल कामना के साथ उनकी भावना के अनुरूप जैन समाज के संगठन को बलशाली बनाने के लिये भी प्रयासरत हों। अर्हत् वचन, 15 (4), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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