Book Title: Aradhana Prakarana
Author(s): Somsen Acharya, Jinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 12
________________ आराधना प्रकरण ब- प्रति __ जैन विश्वभारती संस्थान के ग्रन्थागार में 1591 क्रमांक पर अंकित प्रकरण की दूसरी प्रति संग्रहीत है। इस प्रति में भी लिपिकार ने टीका समाहित की है। प्रत्येक पृष्ठ में पंक्तियों का क्रम एक जैसा प्राप्त नहीं है। कुछ पर पाँच पंक्तियाँ तथा कुछ पृष्ठों पर छ: पंक्तियाँ समाहित की गई हैं। अ-प्रति की भाँति इस प्रति में भी ग्रंथ का प्रारम्भ और समापन इस प्रकार किया गया है ॥अथ॥ अहँ॥ नमिऊण भणइ एवं भयवं समउचियं समाइससु। तत्तो वागरइ गुरु , पजंताराहणा एअ॥1॥ अर्थात् इस प्रकार (भगवान् महावीर को) प्रणाम कर कहते हैं कि शास्त्रसम्मत (करणीय कार्य का) आदेश दे। तब गुरु इस सम्पूर्ण आराधना को कहते हैं। सिरिसोमसूरिरइअं, पज्जंताराहणं पसमजणणं। जे अणुसरंति सम्मं, लहंति ते सासयं सुक्खं ॥ 70॥ अर्थात् – श्री सोमसूरि द्वारा रचित उत्कृष्ट रूप से कर्मों का शमन करने वाली पर्यन्त (सम्पूर्ण) आराधना को, जो सम्यक् रूप से अनुसरण करते हैं, वे शाश्वत सुख अर्थात् निर्वाण को प्राप्त करते हैं। ___ अन्तिम पृष्ठ पर लिपिकार ने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि "आराधना प्रकरणावचूरी संवत् 1665 में कुमारगिरि ग्राम में महोपाध्याय मुनि विजयगणि के शिष्य पं. प्रेम विजयगणि के द्वारा शुक्ल पक्ष की दशमी रविवार को पूर्ण की गई। यह कृति लेखक और पाठक के लिए कल्याणकारी है।" प्रति में माह का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। इस प्रति में कुल ग्यारह पृष्ठ हैं। प्रति के द्वितीय पृष्ठ पर 10 वीं व 12वीं गाथा प्राप्त नहीं होती है। सम्भवतः यह लिपिकार द्वारा भूलवश छूट गई होगी। अंतिम 12 वें पृष्ठ पर अनशन विधि का उल्लेख नौ पंक्तियों में किया गया है। यह लिपिकार की दूसरी कृति कही जा सकती है। उक्त दोनों प्रतियों में से सम्पादन हेतु अ-प्रति को आधार प्रति माना गया है। आवश्यकता पड़ने पर तथा उपयुक्तता के आधार पर ब-प्रति के पाठों को भी मूल में रखा गया है। यद्यपि ऐसा प्रयोग बहुत कम रूप में किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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