Book Title: Aradhana Prakarana
Author(s): Somsen Acharya, Jinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 60
________________ आराधना प्रकरण कर्म : (गाथा, 33) आत्मप्रवृत्याकृष्टास्तत्प्रायोग्य पुद्गलाः कर्मः। (जैन सिद्धान्तदीपिका - आ. तुलसी, 4/1) . अर्थात् आत्मा की प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट एवं कर्मरूप में परिणत होने योग्य पुद्गलों को कर्म कहते हैं। ___ ये आठ होते हैं - चार घाती कर्म - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीय तथा चार अघाती कर्म – नाम, गोत्र, आयुष्य एवं वेदनीय। कषायः (गाथा, 38) रागद्वेषात्मकोत्तापः कषायः। (जैन सिद्धान्त दीपिका, 4/22) अर्थात् रागद्वेषात्मक उत्ताप को कषाय कहते हैं। ये चार हैं - 1. क्रोध 2. मान 3. माया 4.लोभ। केवलज्ञान - (गाथा, 43) सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य (तत्त्वार्थसूत्र 1/30) अर्थात् जिसकी प्रवृत्ति सभी द्रव्यों एवं पर्यायों में हो, वह केवलज्ञान है। यह इन्द्रियों एवं मन की सहायता के बिना ही आत्मा में प्रकट होता है। गति - (गाथा, 47) देशाद्देशान्तर प्राप्ति हेतुर्गतिः। (स.सि. 4/21) अर्थात् एक देश से दूसरे देश को प्राप्त करने का जो साधन है, उसे गति कहते हैं। गतियाँ चार प्रकार की हैं -- नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति तथा देवगति। सिद्धगति को पाँचवीं गति के रूप में मानते हैं। गुण - (गाथा, 9) जो किसी वस्तु या व्यक्ति को विशेष बना दे, उसे गुण कहते हैं । गुण आठ होते हैं - 1. शंका रहित, 2. आकाँक्षा रहित 3. विचिकित्सा रहित 4. अमूढ़दृष्टिपना 5. उपवृहण 6. अस्थिरीकरण 7. वात्सल्य 8.प्रभावना। गुप्ति - (गाथा, 13) सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः। (तत्त्वार्थसूत्र, 9/4) अर्थात् योगों का भलीभांति निग्रह करना गुप्ति है। गुप्ति के तीन भेद हैं - 1. काय गुप्ति 2. वचन गुप्ति 3. मन गुप्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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