Book Title: Aradhana Prakarana
Author(s): Somsen Acharya, Jinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 17
________________ 8 आराधना प्रकरण यह महान् अन्तिम उद्देश्य है । आराधना प्रकरण में इन दोनों उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पंच नमस्कार महामंत्र को समर्थ बताते हुए कहा गया है कि जेण सहाएण गाणं, परभवे संभवंति भवियाणं । मणवंछिअ सुक्खाइ, तं सुमरसु मणे नमुक्कारं ॥ ( गाथा, 64 ) अर्थात् जिसकी सहायता से परभव में भी गये हुए भव्य जीवों को मनवांछित सुखों की प्राप्ति होती है। उस नमस्कार महामंत्र का मन से स्मरण करो । सुलहाउं रमणीउं, सुलहं रज्जं सुरत्तणं सुलहं । इक्कुच्चि जो दुलहो, तं सुमरसु मणे नमुक्कारं ॥ (गाथा, 65) अर्थात् - (इस संसार में ) सुन्दर स्त्री सुलभ है, राज्य भी सुलभ है और देवत्व भी सुलभ हो जाता है, (किंतु) एक मात्र जो दुर्लभ है उस नमस्कार महामंत्र का मन में स्मरण करो । - लर्द्धमि जंमि जीवाण, जायए गोपयं व भवजलही । , सिव- सुह- सच्चंकारं तं सुमरसु मणे नमुक्कारं ॥ ( गाथा, 66 ) अर्थात् - जिस भव में जिसको (नमस्कार महामन्त्र ) प्राप्त कर लेने पर जीवों के लिए यह संसार-सागर गोपद के (गाय के खुर) के बराबर हो जाता है वैसे शिव, सुख और सत्य स्वरूप नमस्कार महामंत्र को मन में स्मरण करें। इस प्रकार आराधना प्रकरण का प्रतिपद्य विषय जहाँ लौकिक सुखों की संपूर्ति में जीव को समर्थ बनाता है, वहीं दूसरी ओर आराधना के द्वारा शाश्वत सुख को प्राप्त करने में सक्षम बना देता है । अतः व्यक्ति को जीवन पर्यन्त दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की आराधना करना चाहिए। प्रकरण : एक दृष्टि जैनाचार्यों ने भारतीय साहित्य को समृद्ध करने का भरपूर प्रयास किया है। साहित्य लेखन की दृष्टि से जैनागम सहित आगमेतर साहित्य भी अद्वितीय स्थान रखता है। आगम में वर्णित विषयों को व्याख्यायित करने के लिए व्याख्या ग्रंथ जैसेनियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाएँ लिखी जाती रही। यह परम्परा आगम काल से लेकर 10वीं - 11वीं शताब्दी तक निर्बाध रूप से प्रचलित रही । लगभग 11वीं शताब्दी के पश्चात् रचनाकारों में स्वतन्त्र रूप से ग्रंथ लेखन की प्रवृत्ति दिखाई देने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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