Book Title: Aradhana Prakarana
Author(s): Somsen Acharya, Jinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 53
________________ 44 अन्वय जं सुद्धनाण- दंसण-चरणाइं, भवण्णवप्पवहणाई । सम्ममणुपालिआई, तमहं अणुमोअए सुकयं ॥ 52 ॥ : जं भवण्णवप्पवहणाई सम्ममणुपालिआई सुद्धनाण- दंसण-चरणाई तं सुकयं अहं अणुमोअए । आराधना प्रकरण अनुवाद : जो संसार सागर को तारने वाले सम्यक् रूप से अनुपालित शुद्ध ज्ञान, दर्शन, व चारित्र हैं, उन सुकृतों की मैं अनुमोदना करता हूँ । जिणसिद्धसूरिउवज्झाया, साहू' साहम्मिअ-पवयणेसु' । जं विहिउं बहुमाणो तमहं अणुमोअए सुकयं ॥ 53 ॥ अन्वय : जिणसिद्धसूरिउवज्झाया साहू साहम्मिअ-पवयणेसु जं बहुमाणो विहिउं तं सुकयं अहं अणुमोअए । अनुवाद : जिन, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु आदि साधर्मिकों के प्रवचनों में जो बहुमान किया गया, उस बहुमान रूप सुकृत का मैं अनुमोदन करता हूँ । * आवस्सयंमि छब्भेए सामाइअ चोवीसत्थयाई । जं उज्जमिअं सम्मं तमहं अणुमोअए सुकयं ॥ 54 ॥ अन्वय : सामाइअं चोवीसत्थयाइं छब्भेए आवस्सयंमि जं सम्मं उज्जमिअं तं सुकयं अहं अणुमोअए । अनुवाद : सामायिक, चर्तुर्विंशतिस्तव आदि 6 प्रकार के आवश्यक में जो सम्यक् रूप से उद्यम किया गया है। उस सुकृत का मैं अनुमोदन करता हूँ । सुक्खदुक्खाण कारणं लोए । पुव्वकयपुन्नपावाण न य अन्नो कवि जर्णो, इअ मुणिअं' कुणसु सुहभावं ॥ 55 ॥ अन्वय : पुव्वकयपुन्नपावाण सुक्खदुक्खाण लोए अन्नो कोवि जणो न कारणं इअ मुणिअं सुहभावं कुणसु । अनुवाद : संसार में पूर्वकृत पुण्य-पाप और सुख-दुःख का कारण अन्य और कोई भी व्यक्ति नहीं है, ऐसा जानकर शुभभाव (शुभाचरण) करो । 2. ( अ, ब ) प्पवयणेसु 1. ( अ, ब ) साहु 3. (अ) बहुमणो 4. (अ) चोवीसत्थाई, (ब) चउवीसत्थयाई 5. (ब) सव्वं 6. (अ) जिणो 7. (अ) मणिमुणिअं * 'दोनों प्रति में इस गाथा के प्रथम व द्वितीय चरण में व्यत्यय था । जिसे छंद की दृष्टि से प्रथम को द्वितीय व द्वितीय को प्रथम चरण किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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