Book Title: Aradhana Prakarana
Author(s): Somsen Acharya, Jinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 33
________________ 24 आराधना प्रकरण __ अर्थात्- यही धर्म मेरे लिए और सबके लिए शरणभूत है, जो अनर्थ के प्रबन्ध को दूर करता हो, जनकल्याणकारी हो और जीव दया का वर्णन करने वाला हो। ये सभी विशेषण धर्म के कहे गये हैं। रूपक अलंकार जब उपमेय पर उपमान का निषेधरहित आरोप होता है तो वहाँ रूपक अलंकार होता है। इस अलंकार में उपमेय और उपमान में अभेदता स्थापित की जाती है। तद्रूपकं उपमानोपमेयस्य अर्थात् जहाँ उपमेय और उपमान से एक रूपता हो वहाँ रूपक अलंकार होता है। इसका उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है - सग्गापवग्गपुरमग्ग - लग्गलोआण-सत्थवाहो जो। भवअडवी लंघण खमो, सो धम्मो होतु मम सरणं॥ (गाथा, 46) इस गाथा में स्वर्ग एवं अपवर्ग रूप नगर तथा भवअटवी अर्थात् संसार रूप अटवी में रूपक अलंकार है। विशेषोक्ति अलंकार - विरोध मूलक अलंकार । पर्याप्त कारण के होते हुए भी कर्याभाव का वर्णन विशेषोक्ति अलंकार है। विशेषोक्ति का अर्थ है- विशेष प्रकार की उक्ति अर्थात् परिपूर्ण कारण के होते हुए भी कार्य का अभाव, असाधारण उक्ति है। इसीलिए इसे विशेषोक्ति अलंकार कहते हैं। उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि काव्यप्रकाश के कर्ता आ. मम्मट के इस कथन से हो सकती है कि - विशेषोक्तिरखंडेषु कारणेषु फलावचः ॥ (काव्यप्रकाश, 10/108) साहित्य दर्पण में पं. विश्वनाथ ने भी कुछ इसी प्रकार ही विशेषोक्ति अलंकार को प्रतिपादित किया है - सतिहेतौ फलाभावे विशेषोक्तिस्तथाद्विधा॥ (काव्यप्रकाश, 10/88) आराधना प्रकरण ग्रंथ में इस अलंकार का प्रयोग प्रस्तुत गाथा में हुआ हैजं भुंजिऊण बहुहा, सुरसेलसमूह पव्वएहिंतो। तित्ति तए न पत्ता, तं चयसु चउव्विहाहारं॥ (गाथा, 59) अर्थात् जो मेरु पर्वत समूह में पर्वतों के सदश विविध प्रकार के भोगों को तुम्हारे द्वारा भोगकर भी तृप्ति प्राप्त नहीं की जा सकी, उन चार प्रकार के आहार का त्याग करो। प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि मेरु पर्वत समूह में पर्वतों के सदृश विविध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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