Book Title: Aradhana Prakarana
Author(s): Somsen Acharya, Jinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 35
________________ 26 आराधना प्रकरण अभिव्यक्ति के लिए जिस व्यक्त वाणी का उपयोग करता है, उसे भाषा कहते हैं। भाषा शब्द संस्कृत की भाप् (भ्वादिगणी) धातु से बना है। भाष्' धातु का अर्थ है - (भाष व्यक्तायां वाचि) व्यक्त वाणी। हलायुधकोश' में भाषा की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है - "भाष् + 'गुरोश्च हल' इत्य प्रत्ययः। टाप्।" भाष्यते व्यक्तवाररूपेण अभिव्यज्यते इति भाषा अर्थात् व्यक्त वाणी के रूप में जिसकी अभिव्यक्ति की जाती है, उसे भाषा कहते हैं। आराधना प्रकरण की भाषा के विषय में यदि अध्ययन करें तो ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण प्रकरण ग्रंथ महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है। प्राकृत भाषा के कई रूप प्राप्त होते हैं, जिनमें महाराष्ट्री प्राकृत भी एक रूप है। सामान्य प्राकृत के नाम से जानी जाने वाली महाराष्ट्री प्राकृत का काल लगभग 5वीं शताब्दी से माना गया है, क्योंकि अंतिम तीसरी आगम वाचना के समय से ही व्याख्या साहित्य लिखा जाना प्रारंभ हो गया था। जिसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। इस ग्रंथ की शैली सहज एवं सरल तथा बोधगम्य है। ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय सहज शैली में होने से पाठक को आसानी से स्पष्ट होता जाता है। यद्यपि रचनाकार भाषा-प्रयोग के लिए स्वतंत्र रहता है, किन्तु किसी एक भाषा को मुख्य रूप से स्थान भी देता है। समकालीन भाषाओं का प्रभाव रचनाकार पर अवश्य पड़ता है। आराधना प्रकरण में सामान्य प्राकृत (महाराष्ट्री प्राकृत) के अतिरिक्त यत्र-तत्र अपभ्रंश का भी प्रयोग देखने को मिलता है। भाषागत वैशिष्ट्य के अंतर्गत कारक, क्रिया-रूप, स्वर-व्यंजन परिवर्तन, आगम, लोप, व्यत्यय आदि बिन्दुओं के आधार पर कृति का मूल्यांकन किया जाना अपेक्षित है, लेकिन जिनकी प्रवृत्ति यहाँ हो रही है, उनमें से कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं-- 1. सामान्य प्राकृत में ऋ वर्ण का अभाव देखा जाता है, उसके स्थान पर अ, इ, उ और रि का प्रयोग होता है। आराधना प्रकरण ग्रंथ में ''ऋ' के स्थान पर "अ"."इ" और "3" के प्रयोग मिलते हैं। जैसे ऋ - अ - हृता - हया (गाथा, 16,17) व्यापृतेनं - वावडेणं (गाथा, 20) वृषभ वसहा (गाथा, 41) कृतं - कयं (गाथा, 48) कृताई कयाई (गाथा, 50) सुकयं (गाथा, 51) सुकृतं 1. हलायुध कोश, पृ. 459, हिन्दी समिति, लखनऊ, 1957 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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