Book Title: Aradhana Prakarana
Author(s): Somsen Acharya, Jinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

View full book text
Previous | Next

Page 46
________________ आराधना प्रकरण 37 च गरिहामि। अनुवाद : 'जिन' के द्वारा उपदिष्ट बाह्य और आभ्यन्तर बारह प्रकार के तप को अपनी सामर्थ्य के अनुसार जो (मैंने) नहीं किया, उसकी (मैं) निंदा व गर्दा करता हूँ। जोगेसु मुक्खपहसाहगेसु, जं वीरिअंन य पहुत्तं'। मणवायाकाएहिं, तं निंदेतं च गरिहामि ॥25॥ अन्वय : मुक्खपहसाहगेसु, जोगेसु मणवायाकाएहिं, जं पहुत्तं वीरिअंन (कअं) तं निंदेतं च गरिहामि। अनुवाद : मोक्ष साधक उपायों में मन, वचन व काय से मैंने सामर्थ्यानुसार प्रभूत रूप से शक्ति नहीं लगाई (आचरण नहीं किया) उसकी (मैं) निंदा व गर्दा करता हूँ। पाणाइवायविरमण, पमुहाई तुमं दुवालसवयाई। सम्मं परिभावंतो, भणसु जहा गहिआभंगाइं ॥ 26॥ अन्वय : पाणाइवायविरमण, पमुहाइ दुवालसवयाई सम्मं परिभावंतो, जहा अभंगाई तुमं गहिअं (तं) भणसु। अनुवाद : प्राणातिपात विरमण आदि प्रमुख बारह व्रतों को सम्यक् रूप से भावित करते हुए जैसे भंग रहित निरन्तर (आपने) ग्रहण किया है, (पाला है) उसे कहो - खामेसु सव्वसत्ते, खमेसु तेसिं तुमं विगय कोवो। परिहरिअ पुव्ववेरो, सव्वे मित्तिं त्ति चिंतेसु॥27॥ अन्वय : तुमं सव्वसत्ते खामेसु कोवो विगय तेसिं खमेसु पुव्ववेरो परिहरिअ सव्वे (जीवेसु) मित्तिं त्ति चिंतेसु। अनुवाद : तुम समस्त जीवों से क्षमा याचना करो। क्रोध शमन करके उनको क्षमा प्रदान करो। पूर्व जन्मों के बैर को त्याग कर सभी जीवों में मैत्रीभाव का चिन्तन करो। पाणाइवायमलीकं - चोरिकम्मं मेहुणं'। दविणमुच्छं कोहंमाणं, मायं, लोभं, पिजं तहा दोसं॥28॥ 1. न य पहुत्तं के लिए अ प्रति में मणप्पहत्तं दिया गया है। 2. (ब) इं 3. (अ) भणुसु, ब - ज भणसु 4. (अ, ब) गहिअभंगाई 5. (अ) वो, 6. (अ) मित्ति, ब - मित्त 7. (अ) मिलिअं 8. (अ, ब) चोरिकं 9. (अ) मिहुणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70