Book Title: Aradhana Prakarana
Author(s): Somsen Acharya, Jinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ आराधना प्रकरण मिलती है। यथा - ट के स्थान पर ड कोटि - कोडि (गाथा, 44) भवअटवी - भवअडवी (गाथा, 46) पापकुटुंबकम् - पावकुडंबयं (गाथा, 50) 10. यत्र-तत्र क्ष के स्थान पर 'ख' का प्रयोग भी इस ग्रंथ में किया गया है। यथा भवक्षेत्रे - भवखिते (गाथा, 34) .. क्षमासु - खामेसु (गाथा, 27) 11. इस आराधना प्रकरण ग्रंथ में यत्र-तत्र अपभ्रंश का प्रयोग भी मिलता है। यथा भावं भावउं (गाथा, 10) उपेक्षित - उवक्खिउं (गाथा, 11) विधि - विहिउं (गाथा, 14) जातं जाउं (गाथा, 37) भवचतुर्गतम् - भवचारग्गउं (गाथा, 47) मुणिः - मुणिउं (गाथा, 60) रमणीः - रमणीउं (गाथा, 65) इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह ज्ञात होता है कि श्री सोमसूरि ने आराधना प्रकरण में सामान्य प्राकृत भाषा का प्रयोग कर शैली को सरल एवं भावगम्य बना दिया है। उक्त लक्षगों के अतिरिक्त इसमें प्राकृत के अन्य लक्षण भी घटित होते हैं। अपभ्रंश का प्रभाव भी इस कृति में देखने को मिलता है। इसके आधार पर श्री सोमसूरि की गणना लगभग 12 वीं शताब्दी के बाद की मानी जा सकती है। * * * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70