Book Title: Aradhana Prakarana
Author(s): Somsen Acharya, Jinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 20
________________ आराधना प्रकरण 11 सभी विषय पद्य में नहीं होते । आगमिक प्रकरणों की रचना के पीछे यह भी एक कारण है। 4. आगमों में आने वाले गहन विषयों में प्रवेश करने के लिए प्रवेशद्वार सरीखी कृतियों की ( प्रकरणों की) योजना होनी चाहिए और इस दिशा में प्रयत्न भी किया है। 5. जैन आचार- विचार अर्थात् संस्कृति का सामान्य बोध सुगमता से हो सके, इस दृष्टि से भी आगमिक प्रकरणों का उद्भव हो सकता है और हुआ भी है । इस तरह उपर्युक्त कारणों के आधार पर पूर्वाचार्यों ने आगमों के आधार पर जो सुनिष्ट एवं सांङ्गोपांग प्रकरण पाइय (प्राकृत) में और वह भी पद्य में लिखे वे आगमिक प्रकरण कहे जाते हैं । आगमिक प्रकरण की परम्परा देखने से प्रतीत होता है कि ये ग्रंथ प्रारम्भ में प्राकृत पद्यबद्ध लिखे जाते रहे। कुछ समय पश्चात् इनका लेखन संस्कृत भाषा में गद्य-पद्य दोनों में किया जाने लगा। इसके पश्चात् यह परम्परा भी परिवर्तित होती दिखाई दी, क्योंकि लगभग 16वीं - 17वीं शताब्दी के पश्चात् अनेक विधाओं का प्रचलन प्रारम्भ हो गया था । 'थोकड़ा', टब्बा, स्तवक आदि विधाएँ अपनाई जाने लगी थीं । आगमिक प्रकरणों में अनेक प्रकरण प्राप्त होते हैं । यद्यपि इनके विषय जैनागमों से ही लिए गये होते हैं । इसलिये विषय की दृष्टि से प्रकरण ग्रन्थों का विभाजन दो रूपों में किया गया है - 1. तात्त्विक और गणितानुयोग सम्बन्धी विचारों के निरूपण हेतु । 2. आचार - दर्शन के निरूपण हेतु । आराधना : एक अध्ययन - जीवन के सहजस्रोत में समाविष्टि की साधना, श्रुत, बल, वीर्य की प्रकाम अभिव्यक्ति की कला का कमनीय अभिधान है- आराधना । आराधना इस सप्तमात्रिक शब्द में विनश्वर देह में अविनश्वर सात स्वरों के प्रवहण सामर्थ्य की उद्भूति स्थल सन्निहित है । 'आराधना' जीवन यात्रा का वह सोपान है, जिस पर आरूढ़ होकर साधना सफल हो जाती है। वह ( आराधना) वैसी माधवी अरण्याणी समूह हैं, जिसके कर्म मार्ग से चलने वाला हर पथिक उस दिव्य संभूति को प्राप्त कर लेता है, जहाँ पर जाकर यह घटना सहजतया घटित होने लगती है। आराधना एक गीत है, जो कर क्षण दुःख में, बन्द में, कुरूपता में बाधा में विश्वास में, सन्देह में, सन्यास में, ; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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