Book Title: Aradhana Prakarana
Author(s): Somsen Acharya, Jinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 15
________________ आराधना प्रकरण (आराधना प्रकरण) के उपर्युक्त प्रतिपाद्य विषय का विवेचन करते हैं तो पाते हैं कि प्रस्तुत ग्रंथ में पंच परमेष्ठियों के स्वरूप का विवेचन करते हुए रचनाकार ने आत्मकल्याण एवं मंगल की कामना व्यक्त की है। नमस्कार महामंत्र में पंचपरमेष्ठियों को मंगल माना गया है, जिसको यहाँ प्रतिपादित किया जा रहा है - णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ जैन धर्म में इस नमस्कार महामंत्र की अत्यधिक महिमा है। इसे मंगलवाक्य के रूप में भी जाना जाता है। यहाँ जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि इन मंगल वाक्यों की आवश्यकता क्यों हुई? इसके सम्बन्ध में आचार्य, मनीषी विद्वानों ने चिंतन किया है, जिसको निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि आत्म-संतुष्टि एवं आत्मकल्याण की भावना से प्रेरित होकर ही मानव अपने जीवन में मंगल को स्थान देता है। विचारक महापुरुषों ने विषय-कषायजन्य अशान्ति और बैचेनी को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के विधानों का सृजन किया है। नाना प्रकार के मंगलवाक्यों की प्रतिष्ठा की है तथा जीवन में शान्ति और सुख प्राप्त करने के लिए ज्ञान, भक्ति, कर्म और योग आदि मार्गों का निरूपण किया है। मन की परिपक्वता, आत्मस्वरूप पर श्रद्धान, विषय-कषायों से मुक्ति तथा विकारों पर विजय प्राप्त करने में मंगलवाक्य ही दृढ़ आलम्बन बनते हैं तथा उनसे आत्मकल्याण की भावना प्रबल होती है। णमोकार महामंत्र के माध्यम से पंच परमेष्ठियों की आराधना कर व्यक्ति लौकिक कल्याण की प्राप्ति, सुख तथा अन्त में निर्वाण-प्राप्ति कर सकता है। कोई भी साधक यदि चिदानंद शान्तमुद्रा के चित्त को अपने हृदय में स्थापित करे, तो मिथ्यादृष्टि का शमन होता है, दृष्टिकोण में परिवर्तन होता है, राग-द्वेष की भावनाओं का विसर्जन हो जाता है, आध्यात्मिक विकास होने लगता है तथा चारों तरफ मंगल और कल्याण की सृष्टि होती है। प्रस्तुत आराधना प्रकरण में रचनाकर ने इन्हीं सारी बातों को ध्यान में रखकर पंच परमेष्ठी की आराधना की है, तथा ऐसे ग्रंथ की रचना कर सर्व के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है। इस पंच परमेष्ठी की महत्ता (णमोकार महामंत्र की) इस गाथा में प्रतिपादित की गई है - एसो पंचणमोक्कारो सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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