Book Title: Aradhana Prakarana
Author(s): Somsen Acharya, Jinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 14
________________ आराधना प्रकरण कषायों का शमन, पापों का त्याग, निःशल्य होकर अपने जीवन को संयमित रखना, ये सभी क्रियाएँ कर्म-शमन के लिए आवश्यक हैं। श्री सोमसूरि ने भी आराधना प्रकरण में इन्हीं सिद्धांतों का विवेचन किया है। अठारह प्रकार के पापों का त्याग करते हुए उन्होंने पंच नमस्कार मंत्र को शरणभूत माना है। अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पंच परमेष्ठी नमस्कार योग्य हैं। और ये ही शरणभूत हैं। रचनाकार ने दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य रूप पंचाचार के माध्यम से आचारशास्त्र का विवेचन संक्षेप में किया है, और पंचाचार को पालने में हुई विराधना के लिए क्षमा याचना भी की है। इस विराधना में षड्जीवनिकाय के प्रति हिंसा और महाव्रत या व्रत के पालने में हुई विराधना के प्रति निंदा व आलोचना की विस्तार से व्याख्या की गई है। इसी क्रम में अहिंसा परमो धर्मः' की भावना को व्याख्यायित करते हुए समस्त जीवों के प्रति क्षमा-भाव और याचना का चिन्तन रखने का आदेश किया गया है - खामेसु सव्वसत्ते, खमेसु तेसिं तुमं विगय कोवो। परिहरिअ पुव्ववेरो, सव्वे मित्तिं त्ति चिंतेसु॥ (गाथा, 27) इस ग्रंथ में प्राणिमात्र के लिए चार शरणभूतों की चर्चा की गई हैं। वे चार शरणभूत हैं - अरिहंत, सिद्ध, साधु तथा केवलीप्रज्ञप्त धर्म। जिन्होंने अपने घाती कर्म नष्ट कर दिये हैं, तथा संसार के प्रति अनासक्त हैं। जो निर्वाण-सुख के मार्ग का उपदेश देने वाले हैं, ऐसे अरिहंत शरणभूत हैं। जिन्होंने संसार को त्याग दिया है, जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हैं, कर्म रहित होकर पंचमगति (मोक्ष गति) को प्राप्त कर लिया है, ऐसे सिद्ध शरणभूत हों । जो महाव्रतों के धारक हैं, काम वासना को वश में करने वाले, सुख और दुःख में सम रहने वाले तथा मणि व तृण को समान समझने वाले हैं। ऐसे मुनि शरणभूत हैं। समस्त जगत् का हित करने वाला, केवलियों के द्वारा प्रज्ञप्त, संसार रूपी अटवी को पार करने में समर्थ, ऐसा धर्म शरणभूत है। इन चारों शरणभूत की प्राप्ति में जो बाधक तत्त्व हैं, उनकी निन्दा और आलोचना इस ग्रंथ में की गई है। इस प्रकार ग्रंथ के अंत में जिनभवन, जिनप्रतिमा, शास्त्र, चतुर्विधसंघ आदि की अनुमोदना करते हुए शुद्ध ज्ञान, दर्शन, चारित्र का पालन करने का निर्देश दिया गया है। साथ ही चारित्र की शुद्धि के लिए छः आवश्यक क्रियाओं को पालने का भी निर्देश ग्रंथ में प्राप्त है। इस प्रकार आराधना प्रकरण ग्रंथ जहाँ एक ओर स्तुति परक प्रतीत होता है, वहीं दूसरी ओर सैद्धान्तिक विषयों का विवेचन करने वाला, आचार शास्त्रीय विवेचन करने वाला और दर्शन, ज्ञान चारित्र और तप रूप आराधना को भक्ति के धरातल पर विवेचित करने वाला है। निष्कर्षतः जब हम प्रस्तुत ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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