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अनुसन्धान-७६
सत्य थई पावक जल, महोदधि होत थल, दुष्ट [...] विष विषधर अपहार रे ॥ भ० ॥१६॥ चोरी कोई करो मत चोरीथी विनाश रे. चोरीइं लिइ राजदंड, मारि करि सतखंड, गाधि चडि शिरमुंड, फेरवत तास रे । मारि मारि करि जन्न, आरत करत मन्न, राजन ततखिन, देत गलें पास रे । देखउ अभंगसेन, चोर वध पायउ तेन, कुटंब सहित जेन, कीयउ नरकवास रे ॥ भ० ॥१७॥ पाईए अमरपद दत्त व्रत पालतइं, देखउ हो अमडसीस, संख्या वीसी पइंत्रीस, ज्येष्ठ मासे एक दिस, पंथ शिर चालतइ । त्रिषा लागी परबल, पीयो नांहि गंगजल, व्रत पाल्यउ निरमल, दुषणके टालतइं । सातसें काल करी, हूया महर्द्धिक सुर, साखि लाभइ इणि परि, आगम संभलतई ॥ भ० ॥१८॥ म म करि म म करि परनारी संग रे, परनारी देखि करी, कटाक्ष नयण भरि, आपद पावत नर, दीपकुं पतंग रे । खिणमात होत सुख, देखइ भवशत दुःख, करत विषय विष, सूरतिको भंग रे । फिट फिट करइ लोइ, अजस-कीरति होइ, रमणि कारण जोइ, होत मोटा जंग रे ॥ भ० ॥१९॥ शीलव्रत पालउ जिम शिवपुरि जाइए, शीलहीतई नमइ देव, सुर नर सारइ सेव, शीलवंत नित्यमेव, देव हीयूं ध्याईइ । देखउ हो सुदरसण, शील पाल्यो एकमन्न, सीलहीतई त्रिभुवन्न, जस गुण गाईयइ ।