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अनुसन्धान-७६
एक हित सीख सुनि, धर्म करि एक मनि, मानवभव रतन, काहेकौं गमाय है ॥ भ० ॥८॥ उदमद कहा भयो करत क्यों न ग्यान रे, उपजत गर्भवास, वस्यो सवा नव मास, नरक ही ओपम जास, दःख अहिठांण रे । अठ कौडि सोइ होमि, चांपै को रोम-रोम, आठ गुण प्रतिलोम, गर्भदुःख जाण रे । अब तउ जनम पाय, संसार की लागी वाय, फरि क्यौं रह्यो लोभाय, तुं तो है अजाण रे ॥ भ० ॥९॥ जरा दुरि जब लगि तब लगि जग रे, जरा जब आये लग, लाल परि मुख मग, दंत गए सब भग, डगमग पग रे । जरा आई गई बुद्धि, नांहि रहि कछू शुद्धि, रोग लागइ विध-विध, जरा परो धिग रे । कह्यो कोई माने नही, दुःख धरें मनमांहि, जोबनकी दिश गई, उठि धर्म लगि रे ॥ भ० ॥१०॥ यम को विश्वास नांहि मुढ तुं संभाल रे, काहें भूलें देख भाल, चेतउ क्यों न प्राणी लाल, ग्रहिस्यें दुर्जनकाल, बाल ही गोपाल रे । सरग-पाताल जाय, ओषध-भेषज खाय, करइ बहू दाय-पाय, तो हि ग्रहिस्यइ काल रे । घटत-घटत जात, पल-घडी दिन-राति, आउखउ गलत भ्रात, करत जंजाल रे ॥ भ० ॥११॥ संसार असार है सार एक धर्म रे, संसार असार एह, दीसत प्रभात ते(जे)ह, सांझ समै नांहि तेह, काहे पड्यो भ्रम रे । कहा करै मेरो-मेरो, सगो नांहि कोई तेरो, जीव एकलो फिरे, भुंचै नीच कर्म रे ।