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अनुसन्धान-७६
विषय प्रवेश -
श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र के तृतीय पद के महादण्डक में (९८ बोल की अल्पबहुत्व में) तथा श्रीमद् जीवाजीवाभिगम सूत्र की द्वितीय प्रतिपत्ति इत्यादि में 'चतुर्थ देवलोक के देवों से तृतीय देवलोक के देवों को असंख्येयगुणा' माना जा रहा है। साधक-बाधक प्रमाणों का तटस्थ प्रज्ञा से अवलोकन करने पर यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि यहाँ पाठान्तर रूप से प्राप्त ‘संख्येयगुण' पाठ ही सम्यक् एवं शुद्ध है।
२ बिन्दु क्रमाङ्क - १
जिन-जिन आगमिक मूलपाठों में प्रतियों में पाठान्तर प्राप्त होते हैं, उन-उन स्थलों पर अन्यान्य प्रमाणों, सिद्धान्तों, युक्तियों के आधार से सम्यक् पाठनिर्णय अपेक्षित ही नहीं, अनिवार्य हो जाता है । यह अनिवार्यता तब
और बढ़ जाती है जब पाठों की भिन्नता से अर्थ की भी भिन्नता प्रकट होती हो ।
उपर्युक्त प्रसंग में चौथे देवलोक के देवों से तीसरे देवलोक के देवों को श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र एवं श्रीमद् जीवाजीवाभिगम सूत्र की कुछ प्रतियाँ 'असंख्येयगुण' कह रही है एवं कुछ 'संख्येयगुण' । अतः यह निर्णेतव्य है कि वस्तुतः असंख्येयगुण वाला पाठ शुद्ध है या संख्येयगुण वाला पाठ। आगे दिये जाने वाले बिन्दुओं से यह स्पष्ट हो जाएगा कि 'संखेज्जगुणा' वाला पाठ शुद्ध है।
स
२ बिन्दु क्रमाङ्क - २
आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी ने पाठनिर्णय के सन्दर्भ में आगमिक व्याख्याओं एवं अन्य ग्रन्थों में प्राप्त सम्बन्धित उद्धरणों को भी महत्त्व दिया है और यथासंगति वे महत्त्वपूर्ण होते भी हैं ।
यहाँ भी पाठनिर्णय के सन्दर्भ में जीवसमास की वृत्ति में आगत श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र सम्बन्धी उद्धरण सम्यक् पाठ की ओर इंगित करता