Book Title: Anusandhan 2005 09 SrNo 33 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 8
________________ September-2005 अभ्रंलिहजिनगृहयो-रनयोः श्रीद्वीपबन्दिरोदितयोः । स्तवनाद् यदकृत सुकृतं तेनाऽस्तु स्वस्ति सङ्घाय ॥३९॥ आर्या ॥ इति श्रीअजितशान्तिस्तवच्छन्दोरीतिपरीत-श्रीसुविधिपार्श्वजिनस्तवः ॥ पण्डितनयविजयेन लिखितः ॥ (२) श्रीशङ्केश्वर पार्श्वजिन स्तुति ॥ ऐं नमः ॥ जय जोगिंदमुर्णिदचंद-देविंदपवंदिय ! जय संखेसर पासनाह ! तिहुअणअभिणंदिय ! । जणमणवंछियअत्थसत्थसुरतरु ! जणिउच्छव ! धनंतरिसमसमरसेण मह सुक्खकरो भव ॥१॥ अहवा किं मम पत्थिएण तुह थुणणसुरदुम सेवणमेव समत्थमत्थवित्थारकए मम । छायापायवमासियाण पहियाण पहस्सममहणकए णहि पत्थणा बिअ णुइस्सइ विस्सम ॥२॥ जह मज्जंति न काणणम्मि करिणो पंचायणअप्फोडियलंगूलसद्दभरिए सुहभायण । तह जिण ! तुह अभिहाणझाणपणिहाणपरायणभविअजणाण हु माणसम्मि दुरियाई विसंति ण ॥३॥ तमपडलाइं गलंति मज्झ सयलाई वि सामिय ! तुह मुहचंदनिहालणेण परिणयसमयामिय ! । अह जिण ! मह तुह आगमेसु जहसत्ति सुबंधुर भत्तिविअत्तिनिबंधबंध ! दुरिउक्करमुद्धर ॥४॥ परिअट्टेवि पहू तुमं सि लोआलोआण वि मह दुहमित्तविणासणं तु सुकरं तुह संभवि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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