Book Title: Anusandhan 2005 09 SrNo 33
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 74
________________ श्रीसूरचन्द्रोपाध्यायनिर्मितम् प्रणम्यपदसमाधानम् म० विनयसागर प्राचीन समय में उपाध्यायगण/गुरुजन व्याकरण का इस पद्धति से अध्ययन करवाते थे कि शिष्य/छात्र उस विषय का परिष्कृत विद्वान् बन जाए। प्रत्येक शब्द पर गहन मन्थन युक्त पठन-पाठन होता था । जिस शब्द या पद पर विचार करना हो उसको फक्किका कहते थे । इन फक्किकाओं के आधार पर छात्रगण भी शास्त्रार्थ कर अपने ज्ञान का संवर्द्धन किया करते थे । कुछ दशाब्दियों पूर्व फक्किकाओं के आधार पर प्रश्न-पत्र भी निर्मित हुआ करते थे, उक्त परम्परा आज शेष प्रायः हो गई है । उसी अध्यापन परम्परा का सूरचन्द्रोपाध्याय रचित यह प्रणम्यपदसमाधानम् है ।। उपाध्याय सूरचन्द्र खरतरगच्छाचार्य श्री जिनराजसूरि (द्वितीय) के राज्य में हुए । सूरचन्द्र स्वयं खरतरगच्छ की जिनभद्रसूरि की परम्परा में वाचक वीरकलश के शिष्य थे और इनके शिक्षागुरु थे - पाठक चारित्रोदय । वाचक शिवनिधान के शिष्य महिमासिंह से इन्होंने काव्य-रचना का शिक्षण प्राप्त किया था । इनका समय १७वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और १८वीं शताब्दी का प्रारम्भ है । सूरचन्द्र प्रौढ़ कवि थे और इनका स्थूलिभद्रगुणमाला काव्य भी प्राप्त होता है, जो कि मेरे द्वारा सम्पादित होकर सन् २००५ में शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेशन रिसर्च सेन्टर, अहमदाबाद से प्रकाशित हो चुका है । कवि के विशिष्ट परिचय के लिए यह ग्रन्थ द्रष्टव्य है : प्रणम्यपदसमाधानम् में प्रणम्य परमात्मानम् इस शब्द पर गहनता से विचार किया गया है । प्रणम्य परमात्मानम् पद्य कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिजी रचित सिद्धहेमशब्दानुशासन की लघुवृत्ति का मंगलाचरण भी है और सारस्वत व्याकरण का मंगलाचरण भी है। इसी लेख में 'प्रणम्य प्रक्रियां ऋजु कुर्वः' इससे स्पष्ट होता है कि सूरचन्द्र ने सारस्वतप्रक्रिया के मंगलाचरण पर ही विचार किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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