Book Title: Antargruha me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 11
________________ स्वरूप। वाणी का सत्य ही सत्य नहीं है, जीवन, जगत् और व्यवहार का सत्य भी, सत्य है। सबसे बड़ा सत्य तो मनुष्य के अन्तरजगत् में है। अपने को भुलाकर, औरों के सत्य को जानने और जीने की कोशिश मूढ़ता है। तीन चीजें हैं- गूढ़ता, मूढ़ता और रूढ़ता। बिना जाने अथवा सोचे-समझे बिना किसी चीज का त्याग करना मूढ़ता है। बिना समझे-जाने किसी पर अंधश्रद्धा करना रूढ़ता है। गूढ़ता को तो उसकी अतल गहराइयों में जाकर ही जिया-पहचाना जा सकता है। धर्म हो या अध्यात्म अथवा विज्ञान, सभी गूढ़ता की महागुहा में जीते हैं। जगत् को जानने के लिए विज्ञान है और जीवन को जानने के लिए अध्यात्म है। मनुष्य भले ही खुद को, अस्तित्व की गूढ़ता को क्यों न भूला रहे, पर जब कभी वह वेदना से व्यथित होगा, अपने वालों से चोट खाएगा तो अपने आप से ही पूछेगा कि मैं कौन हूँ? दुनिया मेरे साथ ऐसी बदसलूकी क्यों करती है? मेरे जीवन का मूल स्रोत क्या है? । ये प्रश्न, ये जिज्ञासाएं ही हमारे अन्तरहृदय में धर्म और अध्यात्म को जन्म देते हैं। धर्म मनुष्य को धारण कर लेता है, पथहारे को नई दृष्टि और नई रोशनी दे देता है। उसकी भग्न हुई मानसिक शांति को नये तरीके से लौटा देता है। एक ऐसी शांति, जो मन के ऊहापोह से ऊपर होती है। औसत आदमी साक्षर हो जाने के बावजूद, उसे यह मालूम नहीं है कि वह वास्तव में कौन है, उसकी वास्तविक शांति और समृद्धि क्या है? वास्तविक सुखों का उसे बोध नहीं है और उन्हें प्राप्त करने का मार्ग भी मालूम नहीं है। सब सुस्त Jan मनुष्य और धर्म/४ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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