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मुक्त आत्माएं परमात्म-स्वरूप होती हैं। परमात्मा कोई व्यक्ति-वाचक नहीं है। आत्मा के अस्तित्व की परम अवस्था को उपलब्ध कर लेने का नाम है। मनुष्य की मुक्ति हो जाने के बाद मुक्त आत्माओं में किसी भी प्रकार का भेद नहीं रहता। सब समान हो जाते हैं। हर भाव से मुक्त हो जाते हैं। परमात्मा वास्तव में मुक्त आत्माओं को दिया जाने वाला एक सामूहिक सम्बोधन है।
परमात्म-सत्ता में कहीं कोई भेद नहीं होता। भेदों का निर्माण तो मानव-मन करता है। परमात्मा अमन है, मन की अनर्गलता से मुक्त है। जो भेद नजर आते हैं, वे जन्म, जाति, रंग, धन, वैभव, पद, प्रतिष्ठा की उठापटक के चलते नजर मुहैया होते हैं। जीवन-मुक्ति और देह-मुक्ति के बाद तो सारे भेद गिर जाते हैं। परम अभेद दशा उपलब्ध हो जाती है। परम आत्म-स्वतन्त्रता का संगान होता है। उस भागवत् दशा में होता है-परम शांति, परम ज्ञान, परम आनन्द ।
परमात्मा का स्मरण हम इसलिए करते हैं ताकि उसकी शांति, ज्ञान और आनंद की उर्मियां हमें भी मिल सकें। निश्चय ही परमात्मा सर्वत्र है। विदेह होने के कारण परमात्मा के कान नहीं हैं, लेकिन वह फिर भी सुनता है। आंखें नहीं हैं, फिर भी देखता है। पांव नहीं हैं, फिर भी चलता है। वह तो सदा ध्यानस्थ है, ज्योति स्वरूप है, परम चैतन्य स्वरूप है। आनन्द का सागर है। वह ऐसा प्रकाश है, जो जन्म की त्रासदी और मृत्यु के अंधकार से विमुक्त है।
दिव्यता की प्यास हो, तो ही परमात्मा से हमें कुछ मिल सकता है। वह हमारा तीसरा नेत्र बन सकता है। हमारे अन्तरहृदय के मानसरोवर में वह राजहंस की भांति उन्मुक्त
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