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व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति बनते हैं। मनुष्य अपने आचरण के कारण साधु-पुरुष भी कहलाता है और शैतान भी। पवित्र आचरण साधुता है, अपवित्र आचरण दुश्चरित्रता है। निर्मल और पवित्र आचार-व्यवहार मनुष्य को देवत्व प्रदान करता है ।
बात-बेबात में क्रोध कर बैठना, सनक चढ़ना, औरों को अपने से हीन मानना, उपेक्षा करना, गाली-गलौज करना हमारे व्यवहारगत दोष हैं। धूम्रपान या मद्यपान करना, गलत नजर डालना, भीतर-बाहर का भेद रखना, छल-प्रपंच करना आचारगत दोष हैं। व्यक्ति तो क्या, समाज और देश तथा उसका नेतृत्व करने वाले भी इतने स्वार्थी और भ्रष्ट होने लगे हैं कि मानो कुए में ही भांग पड़ी हो। सभी सुधरें, अच्छी बात है। कम से कम हम तो ऊंचे उठे, देवत्व को जियें।
आचार-शुद्धि के लिए विनम्रता और सहिष्णुता अनिवार्य चरण हैं। हम सबसे मिलें, चाहे स्त्री हो या पुरुष, सबके प्रति सम्मानपूर्ण मैत्री भरा व्यवहार रखें। किसी को कुछ भी बोलें या लिखें, पर उसमें इतना माधुर्य हो कि हमारे दो वचन भी दूसरों के लिए फूलों का उपहार बन जायें। हमें जहां अपने आत्म-सम्मान को गिरने नहीं देना चाहिये, वहीं दूसरों के भी अदब-इज्जत का ध्यान रखना चाहिये।
आचार-शुद्धि के लिए संकल्प लें -
१. मैं किसी भी प्रकार के नशीले पदार्थ का सेवन नहीं करूंगा अपने खानपान की शुद्धता और सात्विकता के प्रति सजग रहूंगा।
२. न मैं किसी तरह का गलत काम करूंगा और न ही किसी और को गलत राह पर चलने को उत्साहित करूंगा।
आत्म-शुद्धि के चरण/५६ For Pare
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