Book Title: Antargruha me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 81
________________ भी डूबे रहना चाहिये और समाज से भी सम्पर्क बनाये रखना चाहिये। समाज में जायें सेवा और प्रेम के लिए; ध्यान करें अन्तरतम की गहराई में डूबने के लिए। मूल स्रोत के साथ हमारा सम्बन्ध नहीं टूटना चाहिये। __ हर व्यक्ति अपने मूल स्रोत तक पहुंच सकता है। हम अपनी देह से, स्मृतियों से, सम्बन्धों से, मन के विकल्पों से, चित्त की अनर्गलता से स्वयं को अलग हटाकर देखें । धीरे-धीरे गहराई आ जायेगी और अन्ततः अन्तस्-आकाश में बैठी मौन सत्ता के साथ हमारे संवाद और साक्षात्कार होने में कहीं कोई दुविधा नहीं है। जीवन दिव्य और विमुग्ध हो, इसके लिए हमें निरन्तर सावचेत रहना चाहिये। दिव्य जीवन जीने के लिए हमें उन कामों को करने से परहेज रखना चाहिये जिनसे हमारी मानसिक शांति भग्न हो। मन ही बिगड़ गया, तो सब कुछ बिगड़ा ही समझो। मन विकृत हो गया तो मानो इन्द्रियां भी विकृत हो गयीं। किसी भी काम का अच्छा या बुरा होना, बहुत कुछ तो मन पर ही निर्भर करता है। शांत और सधे हुए मन से जिओ तो जीवन में चूक की कहीं कोई सम्भावना नहीं है। हमें जब-तब अपने मन को देखते रहना चाहिये। अ-मन के फूल खिलते रहने चाहिये। भीतर कोई खाई बने या चक्रवात उठे, उससे पहले ही हमें उस पर ध्यान देकर उसका नियंत्रण कर लेना चाहिये। आत्म-दर्शन अथवा आत्म-मुक्ति के लिए मन, चित्त तथा बुद्धि का निर्मलीकरण प्राथमिक अनिवार्यता है। जैसे स्नान किये बगैर मंदिर जाना हम अच्छा नहीं मानते, वैसे ही अन्तरमन के मैल को धोये बगैर भीतर बैठे देवता तक कैसे जा सकेंगे? ध्यान परिपूर्णता को उपलब्ध नहीं कर पाता। मानव-मुक्ति/६० For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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