Book Title: Antargruha me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 83
________________ बुद्धि की शुद्धि होगी। अगर हम जीवन को परमात्मा का प्रसाद और अपने कार्य-कलापों को उसकी सेवा मान लें, तो कर्तृत्वभाव से जुड़ी हुई अहंकार की ग्रन्थियां शिथिल हो सकती हैं। जिसके लिए काम करना व्यायाम है और उत्पादन करना जगत्-पिता की सेवा, उसके लिए जीवन और प्रवृत्ति के बीच विरोधाभास ही कहां है ! यह गौरतलब है कि हम मन के आदेशानुसार न चलें। हमारा हर काम बुद्धि के निर्देशानुसार होना चाहिये। मन का तो हमें साक्षी होना है और बुद्धि का जीवन-संचालन के लिए उपयोग करना है। यदि इंसान को साक्षी होने का गुर मिल जाये, साक्षित्व की चाबी हाथ लग जाये, तो भीतर-ही-भीतर चलती रहती अनर्गल अन्तर्वार्ताओं से छुटकारा पाया जा सकता है। तनाव और चिन्ता को जर्जर किया जा सकता है। हम अपने मन को ऊर्जा देना कम करें, ताकि बुद्धि की शक्ति बढ़े और इस तरह हमारा जीवन विज्ञानमय हो जाये। मन पर बुद्धि का अनुशासन होना ही ध्यानयोग की सफलता है। ध्यान सांसों या संवेदनाओं के अनुभव की कोई विधि भर नहीं है। विधियां तो प्रवेश के लिए होती हैं। वास्तव में तो जब विधि छूट जाती है, हम अपने तन के तल से ऊपर उठ जाते हैं, मन की क्रियाएं शून्य-शांत हो जाती हैं, तभी अन्तस्-आकाश में दृष्टा साकार होता है, ध्यान सम्पूर्ण होता है। ध्यान तो अपने में ही अपना विश्राम है। उस तत्व की पहचान है, जिसकी मुक्ति की हमारी अभीप्सा है। ध्यान तो अन्तस् का स्पर्श है, मौन मैं बैठक है, आकाश भर आह्लाद है। न अतीत की स्मृतियों का बोझ और न ही भविष्य की कल्पनाओं का शोर । जो है, उसी को आनन्दपूर्वक जीना है। Jain मानव-मुक्ति/६२ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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